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________________ ११६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सम्बन्धो भविष्यति । तेन यदुक्तम् - 'व्यक्तेश्चाऽव्यपदेश्यत्वात् द्वारेणापि नास्त्यसौ' (६८-१) इति - तदनैकान्तिकम्, संवृतिपक्षे चाऽसिद्धम् - [त. संग्रहे - ११४३] "व्यक्तिरूपावसायेन यदि वापोह उच्यते । तल् लिंगायभिसम्बन्धो व्यक्तिद्वारोऽस्य विद्यते ॥' 'अपोह उच्यते' इति 'शब्देन' इति शेषः, 'तद्' इति तस्मात्, अस्य= इत्यपोहस्य । "आख्यातेषु न च" (पृ. ६८-३) इति - अत्र ' आख्यातेष्वन्यनिवृत्तिर्न सम्रतीयते' इत्यसिद्धम् । तथाहि - जिज्ञासिते कस्मिंश्चिदर्थे श्रोतुर्बुद्धेर्निवेशाय शब्दः प्रयुज्यते व्यवहर्तृभिः न व्यसनितया; तेनाभीर्थप्रतिपत्तौ सामर्थ्यादनभीष्टव्यवच्छेदः प्रतीयत एव, अभीष्टानभीष्टयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । स मेवाभीष्टं यदि स्यात् तदा प्रतिनियतशब्दार्थो न प्राप्नोति इति या च कस्यचिदर्थस्य परिहारेण श्रोतुः क्वचिदर्थे शब्दात् प्रवृत्तिः सा न प्राप्नोति; तस्मात् 'सर्वमेवाभीष्टम्' इत्येतदयुक्तम्, अतः 'पचति' इत्यादिशब्दानामभीष्टव्यवच्छेदः सामर्थ्यात् स्फुटमवगम्यत एवं । ___ कथंचिद् मान ले कि लिंगादि सभी वस्तुधर्म हैं, तो अपोंह के साथ भी उस का सम्बन्ध व्यक्ति द्वारा घट सकता है, क्योंकि भ्रान्त लोगों के द्वारा पूर्वोक्त प्रतिबिम्ब स्वरूप अपोह भी बाह्यव्यक्तिरूप से अध्यवसित है । अत: बाह्यव्यक्तिरूप से किये गये अध्यवसाय के प्रभाव से प्रतिबिम्बात्मक अपोह में अध्यवसित बाह्यव्यक्तिगत लिंगादि का सम्बन्ध घट सकता है। इस लिये यह जो पहले कहा था - "व्यक्ति व्यपदेशअयोग्य होने से व्यक्ति द्वारा भी अपोह के साथ लिंगादि का सम्बन्ध नहीं घट सकता'' - वह उपरोक्त रीति से अपोह में सम्बन्ध घट जाने से अनैकान्तिक सिद्ध होता है । तथा लिंगादि को काल्पनिक मानने के पक्ष में तो वह बात असिद्ध भी है क्योंकि काल्पनिक लिंगादि का सर्वत्र अपोह में काल्पनिक संबन्ध मानने में कोई बाध नहीं है। तत्त्वसंग्रह में (का० ११४२में) यही कहा है कि - "बाह्यव्यक्तिरूप से अध्यवसित अपोह का जब शब्द से प्रतिपादन हो सकता है तब अपोह में उस बाह्यव्यक्ति-अध्यवसाय से उस के लिंगादि का सम्बन्ध भी हो सकता है।" ★ आख्यातप्रयोगों से अन्यापोह की प्रतीति ★ पहले जो कहा था - 'पचति' इत्यादि आख्यात शब्दों में अन्यापोह का अनुभव नहीं होता इसलिये अपोह शब्दार्थव्यवस्था अपूर्ण है” – उस के सामने अब अपोहवादी कहता है कि आख्यातों (=क्रियापदों) में अन्यापोह का अनुभव नहीं होता यह बात असिद्ध है। देखिये - व्यवहारी लोग सिर्फ शौख के लिये शब्दप्रयोग नहीं करते हैं किन्तु श्रोता की बुद्धि में किसी अर्थ को बैठाने के लिये करते हैं। इस प्रकार किसी इष्ट अर्थ का श्रोता को बोध होने पर अर्थत: अनभीष्ट अर्थ का व्यवच्छेद श्रोता को स्वत: अवगत हो जाता है (उदा० 'यह औषध खा जाना' ऐसा कहने पर श्रोता को यह भी पता चल जाता है कि खाने का कहा है मालिश करने का या फेंक देने का नहीं कहा है) क्योंकि इष्ट और अनिष्ट अर्थ एक दूसरे के व्यवच्छेदरूप होते हैं । यदि वक्ता या श्रोता को सभी अर्थ इष्ट ही होते हैं तो किसी भी शब्द से नियत अर्थ का बोध होने का सम्भव ही नहीं रहता। इसका नतीजा यह आता कि अन्य अर्थों से निवृत्त हो कर श्रोता की जो अमुक नियत ही अर्थ में शब्दश्रवणमूलक प्रवृत्ति होती है वह शक्य नहीं रहती। इसी से यह स्पष्ट होता है कि 'श्रोता को सब कुछ इष्ट होता है' यह बात गलत है । इसलिये सिद्ध होता है 'पचति = पकाता है' इत्यादि शब्दोंसे अर्थत: अन्यापोह भी स्पष्ट ही अवगत होता है । जैसे कि तत्त्वसंग्रह में भी कहा है - 'पचति' ऐसा बोलने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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