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द्वितीय: खण्ड:-का०-२
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संख्या तदैकत्वसंख्यासम्बद्धया जात्या धवादिव्यक्तीनां सम्बन्धात् पारम्पर्येण तया धवादिव्यक्तयो विशेष्यन्ते, यदा तु जातेरव्यतिरिक्तैव संख्या तदा साक्षादेव सम्बन्धात् तया विशेष्यन्ते इति जातिसंख्याविशेषिताः सिद्धयन्ति । असदेतत् – यतो यदि सम्बद्धसम्बन्धात् सम्बन्धतो वा धवादिव्यक्तिषु वनशब्दस्य प्रवृत्तिः तदैकोऽपि पादपो 'वनम्' इत्युच्येत प्रवृत्तिनिमित्तस्य विद्यमानत्वात् । तथाहि - बहवोऽपि धवादयो जातिसंख्यासम्बन्धादेव 'वन'मित्युच्यते नान्यतः, स च सम्बन्धः एकस्मिन्नपि पादपेऽस्तीति किमिति न तथोव्येत । अथवा धवादिव्यक्तिसमाश्रिता इत्यत्रपक्षे एकस्यापि तरोः 'वनम्' इत्यभिधानं स्यात् । तथाहि - यैवासौ वनशब्देन जातिर्बहुव्यक्त्याश्रिताऽभिधीयते सैवैकस्यामपि धवादिव्यक्तौ व्यवस्थिता ततश्च वनधियो निमित्तस्य सर्वत्र तुल्यत्वाद् एकत्रापि पादपे किमिति वनधीन भवेत् ?
क्रिया-कालादीनां त्वसत्त्वादेवायुक्तं वस्तुधर्मत्वम् (६७-८) । भवतु वा वस्तुधर्मत्वमेषां तथापि प्रतिबिम्बलक्षणस्यापोहस्य भ्रान्तै हव्यक्तिरूपत्वेनावसितत्वादध्यवसायवशाद् व्यक्तिद्वारको लिंग-संख्यादिया अभिन्न होगी - दो पक्ष में से प्रथम पक्ष में यदि) भिन्न है तो एकत्वसंख्या से सम्बद्ध जाति (वृक्षत्व), और उस जाति का धवादिव्यक्ति के साथ सम्बन्ध है ही इसलिये परम्परया सम्बद्ध-सम्बन्ध से व्यक्ति विशेषित होगी । यदि संख्या जाति से अभिन्न ही है तब तो धवादि व्यक्ति के साथ जाति का जैसे साक्षात् सम्बन्ध है वैसे तदभिन्न संख्या का भी साक्षात् सम्बन्ध होने से, जाति का जैसे साक्षात् सम्बन्ध है वैसे तद्भिन्न संख्या का भी साक्षात् सम्बन्ध होने से जातिगत संख्या से धवादिव्यक्ति साक्षात् सम्बन्ध से विशेषित सिद्ध होगी।" -
तो यह कथन भी गलत है । कारण, जाति-संख्या के सम्बद्धसम्बन्ध से या साक्षात् सम्बन्ध से अगर धवादिव्यक्तिओं में 'वन' शब्द की प्रवृत्ति को युक्त मानेंगे तो किसी एक वृक्ष के लिये भी 'वन' शब्दप्रयोग युक्त हो जायेगा, क्योंकि वहाँ भी वन शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त निर्बाध विद्यमान है। देखिये - चाहे कितने भी धवादि हो, जातिगत संख्या के सम्बन्ध से ही वे 'वन' कहे जाते हैं, और किसी से नहीं । अब जातिगतसंख्या का सम्बन्ध तो जैसे अनेक धवादि वृक्षों में हैं वैसे किसी एक वृक्षव्यक्ति में भी विद्यमान है, तो एक वृक्षव्यक्ति को 'वन' क्यों न कहा जाय ? अथवा.... कर के जो कुमारिलने कहा था कि - 'वन' शब्द का प्रयोग धवादिव्यक्तियों में आश्रित जाति के लिये ही होता है और जाति एक होने से एकवचनान्त 'वन' शब्द ठीक है।' - तो इस पक्ष में भी एक वृक्षव्यक्ति के लिये वनशब्द का प्रयोग प्रसक्त है। देखिये - अनेक धवादिव्यक्ति आश्रित जिस (वृक्षत्व) जाति के लिये 'वन' शब्द प्रयुक्त होता है वही जाति किसी एक धवादि वृक्षव्यक्ति में भी आश्रित है। इस प्रकार 'वन' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त भूत (वृक्षत्व) जाति एक या अनेक व्यक्तियों में समानरूप से जब विद्यमान है तो फिर एक वृक्षव्यक्ति में 'वन' ऐसी बुद्धि (या व्यपदेश) क्यों न हो ?! - यह आपत्ति कुमारिल मत में अटल है। सारांश, लिंग की तरह संख्या भी वस्तुधर्म नहीं है।
★ क्रिया-काल आदि का अपोह के साथ सम्बन्ध ★ 'लिंग-संख्या की तरह क्रिया और काल भी वस्तुधर्म होने से अपोह में नहीं हो सकता' ऐसा जो अपोहवाद के विरोध में पहले (१९७-२८) कहा था उस के सामने अपोहवादी कहता है कि क्रिया और काल में वस्तुधर्मत्व मानना अयुक्त है क्योंकि क्रिया और काल जैसी कोई वस्तु ही नहीं है पदार्थक्षण के अतिरिक्त न तो कोई क्रिया है न कोई काल है इसलिये स्वतन्त्ररूप से ये दोनों असत् हैं।
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