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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यक्तेरवयवानां च संख्याविवक्षा नास्ति" - यद्येवं, न तर्हि वस्तुगतान्वयायनुविधायिनी संख्या, विवक्षाया एवान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । ततश्च सैव 'दाराः' इत्यादिषु बहुवचनस्य निबन्धनमस्तु, भेदाभावेऽप्येकमपि वस्तु बहुत्वेन विवक्ष्यते, इति नासिद्धता हेतोः ।
यच्चोक्तम् - 'वनशब्दो जातिसंख्याविशेषिता व्यक्तीराह' इति, तत्र न जातेः संख्याऽस्ति द्रव्यसमाश्रितत्वादस्याः ।
अथ वैशेषिकप्रक्रिया नाभीयते तदा भावे संख्यायास्तया कथं धवादिव्यक्तयो विशेषिताः सिद्धयन्ति ? स्यादेतत् - सम्बद्धसम्बन्धात् तत्सम्बन्धतो वा सिद्धयन्ति । तथाहि - यदा जातेय॑तिरेकिणी है और जाति एक होती है इसलिये 'वन' शब्द का एकवचनान्त प्रयोग होता है ।
★ असिद्धि के आक्षेप का निराकरण★ 'दारा' में बहुवचन की उपपत्ति के लिये कुमारिलने जो उपरोक्त बात की है उस के सामने अपोहवादी कहता है कि इस तरह तो 'वृक्ष' और 'घट' इत्यादिशब्दों में भी बहुवचन की प्रसक्ति होने से एकवचन का तो उच्छेद ही आ पडेगा, क्योंकि आप का दिखाया हुआ तरीका सर्वत्र प्रयुक्त हो सके ऐसा है । देखिये-वृक्षादि में भी ऐसा कह सकते हैं कि 'वृक्ष' शब्द का प्रयोग जब वृक्षत्वजाति के लिये होगा तब उसके आश्रयभूत व्यक्तियाँ अनेक होने से वहाँ बहुवचन घट सकेगा । और जब वह व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होगा तब उस के शास्वादि अवयव अनेक होने से बहवचन घट सकेगा।
यदि कहें कि - 'दारा' शब्द की तरह वृक्षादि में बहुवचनप्रयोग के लिये अनेक व्यक्तिओं की या उस के अवयवों की बहुत्व संख्या विवक्षित न होने पर एकवचन का प्रयोग सावकाश होगा' - तो इस का मतलब यह हुआ कि संख्या विवक्षा के अन्वय-व्यतिरेक का अनुकरण करती है किन्तु वस्तुगत किसी वास्तवधर्म के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण नहीं करती । जब विवक्षा हि यहाँ मुख्य है तब 'दारा:' आदि शब्दों में भी विवक्षा को ही बहुवचनप्रयोग का निमित्त मान लीजिये, भेद (यानी अनेकता) न होने पर भी एक वस्तु की अनेकरूप से संख्या में विवक्षाकल्पितत्व हेतु कहा था वह असिद्ध नहीं है।
दूसरी बात जो कुमारिल ने कही थी - 'वन' शब्द से वृक्षत्वजातिगत संख्या से विशेषित व्यक्ति का निरूपण होता है' - वह भी ठीक नहीं है क्योंकि न्याय-वैशेषिक मान्यतानुसार तो संख्या गुण होने से द्रव्याश्रित ही होती है, जाति आश्रित कभी नहीं होती, अत: जातिगत संख्या को लेकर एकवचन की बात कतई युक्त नहीं है।
★ जातिगत संख्या से व्यक्ति में वैशिष्ट्य कैसे ?* कुमारिल कदाचित् ऐसा कहें कि - 'हम तो मीमांसक हैं, न्याय-वैशेषिक की प्रक्रिया को न मान कर जाति में भी संख्या मानेंगे' - तो यहाँ अपोहवादी का प्रश्न है कि जातिगत संख्या से तो जाति विशेषित हो सकती है किन्तु धवादिव्यक्ति उससे विशेषित कैसे सिद्ध होगी ?
तब इस प्रश्न के उत्तर में कुमारिल ऐसा कहें कि - "संख्या से सम्बद्ध जाति के सम्बन्ध से, या साक्षात् संख्या के सम्बन्ध से व्यक्ति विशेषित सिद्ध हो सकती है । देखिये - जातिगत संख्या जाति से (भिन्न होगी
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