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द्वितीयः खण्डः का० - २
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गतभेदाभेदलक्षणा यदि स्यात् तदा ' आपः ' ' दाराः ' ' सिकताः ' 'वर्षाः' इत्यादावसत्यपि वस्तुनो भेदे बहुत्वसंख्या कथं प्रवर्त्तते ? तथा, 'वनम्' ' त्रिभुवनम्' 'जगत्' 'षण्णगरी' इत्यादिष्वसत्यप्यभेदेऽर्थस्यैकत्वसंख्या न व्यपदिश्येत, अतो नासिद्धता हेतोः । नाप्यनेकान्तिकः सर्वस्य सर्वधर्मत्वप्रसङ्गात्, सपक्षे भावाच्च न विरुद्धः ।
अत्र च कुमारिलो हेतोरसिद्धतां प्रतिपादयत्राह - दारादिशब्दः कदाचित् जातौ प्रयुज्यते कदाचित् व्यक्तौ । तत्र यदा जातौ तदा व्यक्तिगतां संख्यामुपादाय वर्त्तते, व्यक्तयथ बाहव्यो योषितः । यदा तु व्यक्तौ प्रयुज्यते तदा तद्व्यक्त्यवयवानां पाणि-पादादीनां बहुत्वसंख्यामादाय वर्त्तते । वनशब्देन तु धव- खदिर- पलाशादिलक्षणा व्यक्तयस्तत्सम्बन्धिभूतवृक्षत्वजातिगतसंख्याविशिष्टाः प्रतिपाद्यन्ते तेन 'वनम्' इत्येकवचनं भवति जातिगतैकसंख्याविशिष्टद्रव्याभिधानात् । अथवा धवादिव्यक्तिसमाश्रिता जातिरेव 'वन' शब्देनोच्यते तेनैकवचनं भवति जातेरेकत्वादिति ।
नन्वेवं 'वृक्षः' 'घटः' इत्यादावप्येकवचनमुच्छिन्नं स्यात् सर्वत्रैवास्य न्यायस्य तुल्यवात् । तथाहि अत्रापि शक्यमेवं वक्तुम् “जातौ व्यक्तौ वा वृक्षादिशेत् प्रुयज्यते' इत्यादि । अथ मतम् - " वृक्षादौ पर भी बहुवचन में ही प्रयुक्त किया जाता है । इस अनुमान से संख्या की कृत्रिमता सिद्ध होती है । बहुत्वादि संख्या यदि वस्तुगत भेद या अभेद के साथ वस्तुतः संलग्न होती तब तो संस्कृत भाषा में जलवाचक 'आप: ' शब्द, पत्नी वाचक 'दारा: ' शब्द, बालू का वाचक 'सिकता: ' और वृष्टि का वाचक 'वर्षा' शब्द ये सभी बहुवचन में प्रयुक्त न हो कर एकवचन में ही प्रयुक्त होते, क्योंकि जलादि अर्थ में कोई स्वगत भेद नहीं हैं, तो उन में बहुवचन का प्रयोग कैसे ? तथा वन - त्रिभुवन – जगत् - षण्णगरी इत्यादि शब्दों में स्वगत अभेद न होने पर भी एकवचन का ही प्रयोग होता है वह भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि वन आदि पदार्थ अनेक वृक्षादि स्वरूप है । निष्कर्ष, उपरोक्त अनुमान प्रयोग में 'विवक्षावश - कल्पितत्व' हेतु असिद्ध नहीं हैं । साध्यद्रोही भी नहीं है, क्योंकि विवक्षावशकल्पितत्व हेतु यदि साध्यशून्य में अर्थात् वास्तव पदार्थ में रहेगा तब तो सर्व धर्मियों में विवक्षा वश सर्व धर्मों की कल्पना शक्य होने से सर्वत्र सर्व धर्मों को यानी आग आदि में शैत्यादि को भी वास्तविक मानने की आपत्ति होगी । विवक्षावशकल्पितत्व हेतु दारादि तथा वनादि के लिये प्रयुक्त संख्यारूप सपक्ष में विद्यमान होने से साध्यविरुद्ध होने की तो गन्ध भी नहीं है ।
★ विवक्षावशकल्पितत्व हेतु में असिद्धि का आक्षेप ★
कुमारिल मीमांसक यहाँ 'विवक्षावशकल्पितत्व' हेतु की असिद्धि दीखाते हुए कहता है - दारादिशब्दों को दृष्टान्त बना कर संख्या में विवक्षावशकल्पितत्व हेतु कहा गया है उस की असिद्धि इस प्रकार है - 'दारा' आदि शब्दों का प्रयोग कभी तो जाति के लिये होता है और कभी व्यक्ति के लिये । जब जाति के लिये होता है तब उसके आश्रयभूत व्यक्तिओं में रही हुई संख्या को लेकर बहुवचनान्त 'दारा' शब्द प्रयुक्त होता है; व्यक्तियाँ तो महिलाएँ अनेक ही हैं। जब वह व्यक्ति के लिये ही प्रयुक्त होता है तब उस व्यक्ति के हाथ-पैर आदि अवयवों की बहुत्व संख्या को लेकर बहुवचनान्त 'दारा: ' शब्द प्रयुक्त होता है । इसी तरह वनशब्द से धवादिवृक्षगत वृक्षत्वजाति में रहने वाली एकत्वसंख्या से विशिष्ट धव - खेर - पलाशादि वृक्षों का प्रतिपादन होता है, अतः जातिगत एकत्व संख्यावाले द्रव्य का प्रतिपादन करने से एकवचनान्त वनशब्द का प्रयोग होता है । अथवा यूँ कहीये क बनशब्द से धवादि वृक्षव्यक्तिओं का नहीं किन्तु उन व्यक्तिओं में आश्रित वृक्षत्व जाति का ही प्रतिपादन होता
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