________________
श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
*
" अर्थजात्यभिधानेऽपि सर्वे जातिविधायिनः । व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः || ” न हि शास्त्रान्तरपरिदृष्टा जातिव्यवस्था नियोगतो वैयाकरणैरभ्युपगन्तव्या, प्रत्ययाभिधानान्वयव्यापारकार्योन्नीयमानरूपा हि जातयः, न हि तासामियत्ता काचित्, अतो यथोदितकार्यदर्शनात् सामान्याधारा जातिः सम्प्रतिज्ञायते तथाभूतप्रत्यय - शब्दनिबन्धनम् । 'व्यापारलक्षणा' इति अभिधानप्रत्ययव्यापारतो व्यवस्थितलक्षण इत्यर्थः । तदाऽनन्तरोक्तमेव दूषणम् - 'सामान्यस्याभावात्' इत्यादि । अपि च न हि असत्सु शशविषाणादिसु जातिरस्ति वस्तुधर्मत्वात् तस्याः, इति तेषु 'अभाव' आदिशब्दप्रयोगो न स्यात् । तस्मादव्यापिनी लिंगव्यवस्थेतीच्छारचितसंकेतमात्रभाविन्येवेयं लिंगत्रयव्यवस्थेति स्थितम् ।
-
११२
संख्याया अपि वस्तुगतान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावो नासिद्धः । तथाहि - सा मायिक्ये (व) न वास्तव दारादिष्वसत्यपि वास्तवे भेदे विवक्षावशेनोपकल्पितत्वात्, अन्यथा बहुत्वैकत्वादिसंख्या वस्तुकहा है “कुछ शब्दों में से अर्थगत जाति का निरूपण होने पर शब्द मात्र से भी जाति का निरूपण होता है (अर्थात् गोत्वादि जातिवाचक शब्द भी गोत्वादिजातिगत जाति का ही निरूपण करता है) क्योंकि अपने कार्यों के अनुरूप ही पदार्थ स्थित होता है" अतः वैशेषिक आदि अन्य शास्त्रकारों के द्वारा की गयी जाति सम्बन्धि व्यवस्था मानने के लिये व्याकरणशास्त्री कोई वचनबद्ध नहीं है । समानाकार प्रतीति और समान नामप्रयोग का अन्वय ये दो व्यापारात्मक कार्य लिंग बन कर जाति की अनुमिति को जन्म देते हैं। इन अनुमितिसिद्ध जातियों की संख्या में कोई इयत्ता (= नियन्त्रणा) नहीं है । इसलिये समानाकारप्रतीति आदि कार्य के दर्शन से जाति को भी जाति के अधिकरणरूप में व्याकरणशास्त्री घोषित करते हैं । अतः जाति भी स्त्रीत्वादि के रूप में प्रतीत होती है और उस के लिये तीनों लिंगो का प्रयोग भी संगत होता है । वाक्यपदीय के श्लोक में जो 'व्यापार - लक्षणा पदार्थाः' कहा है उस का मतलब यह है कि तुल्यनामप्रयोग और समानाकार प्रतीतिरूप व्यापार के द्वारा पदार्थों का लक्षण सुज्ञात होता है ।
बौद्ध यहाँ कहता है कि जो दूषण हमने वैशेषिक मत में अभी दिखाया था वही सामान्य कोई वास्तविक अर्थ ही नहीं है - यही दूषण व्याकरणशास्त्री के मत में भी तदवस्थ ही है । यह भी सोचने जैसा है कि शशशृंग आदि असत् पदार्थोंमें तो जाति का अस्तित्व ही नहीं होता, क्योंकि जाति तो सद्भूत अर्थ का धर्म होती है अतः उन असत् पदार्थों के लिये स्त्रीत्वादि जाति के विरह में ' अभाव' ऐसा पुल्लिंग शब्दप्रयोग नहीं हो सकेगा । निष्कर्ष, वैशेषिकादि कल्पित जातिव्यवस्था अपने सभी लक्ष्यों तक पहुँच सके ऐसी व्यापक नहीं है, अतः सिद्ध होता है कि तीन लिंगो की व्यवस्था सिर्फ इच्छा - कल्पना से किये गये संकेत पर ही अवलम्बित है ।
★ लिंग की तरह संख्या भी काल्पनिक ★
"लिंग संख्यादि का अपोह के साथ सम्बन्ध नहीं हैं क्योंकि लिंगादि वस्तुधर्म हैं" इस के सामने अपोहवादी आगे कहता है कि लिंग की तरह संख्या भी वस्तु के साथ अन्वय-व्यतिरेक का अनुकरण करने वाली नहीं है । और यह बात असिद्ध भी नहीं है, देखिये - संख्या मायारचित ही है, वास्तविक नहीं है, क्योंकि वास्तविक भेद होने पर भी विवक्षावश संख्या ( बहुत्वादि की) कल्पना से प्रयुक्त की जाती है, जैसे "दारा' इत्यादि शब्द जब एक पत्नी के लिये प्रयुक्त होता है तब व्यक्ति भेद (यानी अनेकता ) न होने *. 'जात्यभिधायिन:' इति मुद्रितवाक्यपदीये ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org