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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१११ तिप्रसवयोरभावात् कथं 'तिरोभूतिः' "विनाशः' तिरोभवनम्' इत्यादिभिः शब्दैर्व्यपदिश्यते 'संस्त्यानम्' इत्यनेन च ? तथा, स्थितौ संस्त्यानप्रसवयोरसंभवात् 'स्थितिः' 'स्थानम्' 'स्वभावः' चेत्यादिभिः शब्दैः कयमुच्येत ? अथ स्थित्यादीनां परस्परमविभक्तरूपत्वात् प्रत्येकमेषु लिंगत्रययोगिता । ननु परस्परमविभक्तं रूपं तदैकमेव परमार्थतो लिंगं स्यात् न लिंगत्रयम् ।
अन्यस्त्वाह - "स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः" [ ] तत्र पक्षे सामान्य-विशेषाणामभावा(त्) स्त्रीत्वादीनामपि तद्रूपाणामभावः इत्यसम्भवि लक्षणम् । किंच, तेष्वेव सामान्यविशेषेष्वन्तरेणाप्यपरं सामान्यविशेषं 'जातिः भावः सामान्यम्' इत्यादेः स्त्री-पुं-नपुंसकलिङ्गस्य प्रवृत्तिदर्शनात् अव्यापिता च लक्षणस्य । न हि सामान्येष्वपराणि सामान्यानि "निःसामान्यानि सामान्यानि"[ ] इति वैशेषिकसिद्धान्तात् । यदा तु सामान्यस्याप्यपराणि सामान्यानीष्यन्ते वैयाकरणैः, यथोक्तम् - (वाक्यप० तृ. का० श्लो० ११) 'संस्त्यानम्' इस नपुंसकलिंगशब्दप्रवृत्ति भी कैसे होगी ? वैसे ही - स्थिति में प्रसव और संस्त्यान संभव नहीं होते, तो 'स्थितिः स्थानम्, स्वभावः' इस प्रकार लिंगत्रयवाले शब्दों की प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ?
अगर कहें कि - स्थिति-प्रसव-संस्त्यान ये तीनों एक दूसरे से अविभक्त रूप वाले हैं अत: स्थिति आदि में प्रसव आदि विद्यमान होने से उनमें तीनों लिंगो की प्रवृत्ति हो सकती है - तब तो निष्कर्ष यही फलित होगा कि एक-दूसरे से अविभक्त रूप वाले तीनों लिंग वास्तव में एक ही है तीन पृथक् पृथक् लिंग नहीं है । सिर्फ कल्पना से तीन लिंग माने जाय तो हमें कोई बाध नहीं है क्योंकि पहले ही हमने कहा है कि लिंग-संख्यादि वास्तविक नहीं है किन्तु काल्पनिक हैं ।
* स्त्रीत्व आदि लिंग सामान्यविशेषरूप नहीं हैं* अन्य कोई कहता है - स्त्रीत्व, पुंस्त्व आदि ये गोत्व-अश्वत्व की तरह सामान्यविशेष (उभयरूप) है। सकल गो में रहने के कारण गोत्व सामान्यरूप भी है और अश्वादि व्यावृत्त होने के कारण वह विशेषरूप भी है इसी तरह स्त्रीत्वादि में भी समझ सकते हैं।
बौद्ध कहता है कि इस पक्ष में भी स्त्रीत्वादि की वास्तविकता सिद्ध नहीं हो सकती । कारण, जब सामान्य विशेष (उभयात्मक) वस्तु भी परमार्थत: सिद्ध नहीं है तो सामान्यविशेषात्मक स्त्रीत्वादि कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? ! फिर स्त्रीत्वादि के लक्षण का तो सम्भव भी कहाँ ? दूसरी बात यह है कि गोत्वादि सामान्यविशेषों के लिये भी 'जाति' 'भाव' 'सामान्य' ऐसे तीनों लिंगो का प्रयोग होता है, अत: उन गोत्वादि में भी स्त्रीत्वादि सामान्यविशेष की कल्पना करनी पडेगी किन्तु वह तो सम्भव नहीं है तो फिर सामान्य-विशेष के विना उन में तीन लिंगों का प्रयोग कैसे शक्य होगा ? और स्त्रीत्वादि का लक्षण भी उन में कैसे घटेगा ? गोत्वादि में लिंगप्रयोग निर्बाध होता है और सामान्यविशेष रूप लक्षण तो उन में है नहीं अत: लक्षण में अव्याप्ति दोष प्रसक्त होगा । ऐसा नहीं कह सकते कि - सामान्य में भी और सामान्य का सद्भाव मान लेंगे - क्योंकि वैशिषिकों की यह मान्यता है कि 'सामान्य' सामान्यशून्य होता है।
वैयाकरण लोग कहते हैं कि हम तो सामान्य में भी और सामान्य मानते हैं जैसे कि वाक्यपदीय में
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