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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रतिपादकेन तन्मात्रावभासान्येव विवक्षावशाच्चेतांसि भविष्यन्ति न शबलाभासानि - ननु यदि 'विवक्षावशादेकरूपाणि चेतांसि भवन्ति' इत्यंगीक्रियते तदा तानि यात्मकवस्तुविषयाणि न प्राप्नुवन्ति तदाकारशून्यत्वात्, चक्षुर्विज्ञानवत् शब्दविषये ।
___ योऽपि मन्यते - संस्त्यान-प्रसव-स्थितिषु यथाक्रमं स्त्री-पुं-नपुंसकव्यवस्था(?स्थे)ति - तस्यापि तन युक्तम्, यतो यदि स्थित्याद्याश्रया लिंगव्यवस्था तदा तट-शृंखलादिवत् सर्वपदार्थेष्वविभागेन त्रिलिंगताप्रसक्तिः स्थित्यादेविद्यमानत्वात्, अन्यथा 'तटः तटी तटम्' इत्यादावपि लिंगत्रयं न स्यात् विशेषाभावात्, इत्यतिव्यापिता लक्षणदोषः । व्यभिचारदर्शनाद् वाऽव्यापिता च, असत्यपि हि स्थित्यादिके शशविषाणादिष्वसद्रूपेसु(?षु) 'अभावः' - 'निरुपाख्यम्' - 'तुच्छता' इत्यादिभिः शब्दैः लिंगत्रयप्रतिपत्तिदर्शनात् । इतथाऽव्यापिनी - स्थित्यादिष्वेव प्रत्येकं लिंगत्रययोगिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् । तथाहि - प्रसवः = उत्पादः संस्त्यानं = विनाशः आत्मस्वरूपं च स्थितिः, तत्र प्रसवे स्थिति-संस्त्यानयोरभावात् कथं 'उत्पादः उत्पत्तिः जन्म' इत्यादेः स्त्री-पुं-नपुंसकलिंगस्य शब्दस्य प्रवृत्तिर्भवेत् ? तथा, संस्त्याने स्थिकी विवक्षा के अधीन उत्पन्न होगा, अत: चित्तमें लिंगत्रय संकीर्णता मानने की आपत्ति नहीं होगी' - तो इतना कहने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि 'विवक्षा के अनुरूप एक-एक स्वभाववाले ही चित्त उत्पन्न होने की बात को मान लेंगे तो उसका मतलब यही होगा कि वे चित्त तीन लिंग वाले वस्तु को विषय नहीं करते हैं क्योंकि लिंगत्रयाकार से शून्य हैं, जैसे कि चाक्षुष ज्ञान शब्दाकारशून्य होने से शब्दात्मक वस्तु को विषय नहीं करता । परिणामस्वरूप, वस्तु में वास्तवधर्मरूप लिंग-संख्यादि को मानना निरर्थक है।।
★संस्त्यान आदि के आधार पर लिंग-व्यवस्था असंगत* ऐसा जो मानते हैं कि संस्त्यान (=विनाश) सूचित करने के लिये स्त्रीलिंग, प्रसव (उत्पत्ति) के लिये पुल्लिंग और स्थिति के लिये नपुसंकलिंग का प्रयोग करने की व्यवस्था है - तो यह भी ठीक मान्यता नहीं है। कारण, जब स्थिति-प्रसवादि के आधार पर लिंग की व्यवस्था करेंगे तो तट और शृंखलादि शब्दों की तरह हर किसी शब्द में तीनों लिंग की आपत्ति आयेगी क्योंकि उन शब्दों के वाच्यार्थों में स्थिति आदि तीनों की विद्यमानता अबाधित है। फिर भी आप उनमें तीनों लिंग नहीं मानेंगे तो तट आदि शब्दों में जो 'तट: तटी तटम्' तीन लिंगो का प्रयोग होता है वह नहीं हो पायेगा क्योंकि स्थिति आदि को छोड कर और कोई विशेषता तो उन में है नहीं । तात्पर्य, संस्त्यानादि लक्षण के आधार पर की जाने वाली लिंगव्यवस्था अलक्ष्य में भी प्रसक्त होने से अतिव्याप्तिदोषग्रस्त है । उपरांत, लक्ष्य के कुछ भाग में अभाव होने के कारण अव्याप्ति दोष भी प्रसक्त है, जैसे कि शशशृंगादि असत् पदार्थों के बारे में 'अभाव: निरुपाख्यम्, तुच्छता' इत्यादि शब्दों से तीनों लिंग का प्रतिपादन तो सर्वमान्य है किन्तु वहाँ स्थिति आदि एक भी लक्षण नहीं है अत: अव्याप्ति स्पष्ट है । तदुपरांत दूसरे ढंग से भी अव्याप्ति देखिये - स्थिति-प्रसव आदि के लिये तीनों लिंग का प्रयोग सर्वमान्य है, किन्तु स्थिति में प्रसव-विनाश नहीं होते अत: अव्याप्ति होगी । विशेष स्पष्टता के लिये यह ध्यान में रखा जाय कि प्रसव का मतलब है उत्पाद. संस्त्यान का विनाश और स्थिति आत्मस्वरूपावस्था रूप होती है। अब यह प्रश्न उठेगा कि प्रसव में न तो संस्त्यान है न स्थिति, तो प्रसव के लिये 'उत्पादः, उत्पत्तिः, जन्म' इस प्रकार तीनों लिंग वाले शब्दों की प्रवृत्ति कैसे होगी ? वैसे ही, संस्त्यान में स्थिति और प्रसव नहीं है, तो उस के लिये 'तिरोभूतिः, विनाशः, तिरोभवनम्' ऐसे तीन लिंगो की शब्दप्रवृत्ति कैसे होगी - और
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