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________________ द्वितीयः खण्डः का०-२ करण्यं युज्यत एव । यदुक्तम् -'लिङ्गसंख्यादिसम्बन्धो न चापोहस्य विद्यते' (६७-८) इति-अत्र वस्तुधर्मत्वं लिङ्गसंख्यादीनामसिद्धम् स्वतन्त्रेच्छाविरचितसंकेतमात्रभावित्वात् । प्रयोगः - यो यदन्वय-व्यतिरेको नानुविधत्ते नासौ तद्धर्मः, यथा शीतत्वमग्नेः, नानुविधत्ते च लिङ्गसंख्यादिर्वस्तुनोऽन्वय-व्यतिरेकाविति व्यापकानुपलब्धिः । न चायमसिद्धो हेतुः, यतो यदि लिंगं वस्तुतो वस्तु स्यात् तदैकस्मिंस्तटाख्ये वस्तुनि 'तटः तटी तटम्' इति लिंगत्रययोगिशब्दप्रवृत्तेरेकस्य वस्तुनखैरूप्यप्रसक्तिः स्यात् । न चैकस्य स्त्री-पुं-नपुंसकाख्यं स्वभावत्रयं युक्तम् एकत्वहानिप्रसंगात् विरुद्धधर्माध्यासितस्याप्येकत्वे सर्वविश्वमेकमेव वस्तु स्यात् ततश्च सहोत्पत्ति-विनाशप्रसंगः । किञ्च सर्वस्यैव वस्तुन एकशब्देन शब्दान्तरेण वा लिंगत्रयप्रतिपत्तिदर्शनात् तद्विषयाणां सर्वचेतसां मेचकादिरत्नवच्छबलाभासताप्रसंगः । अथ सत्यपि लिंगत्रययोगित्वे सति सर्ववस्तूनां यदेव रूपं वक्तुमिष्टं सामानाधिकरण्य भी घट सकता है। ★ शब्दयोगि लिंग तात्त्विक नहीं होता* यह जो पहले कहा था - अपोह के साथ लिंग और संख्या आदि का सम्बन्ध अशक्य है (पृ. ६७ पं० ३२) - उस के बारे में इस तथ्य को समझना चाहिये कि लिंग या संख्या आदि ये कोई वास्तविक वस्तुधर्म ही नहीं है । कारण, लिंग आदि सिर्फ वक्ता की स्वतन्त्र ईच्छा के मुताबिक ही संकेतित किये जाते हैं । यहाँ अनुमान प्रयोग सुनिये - जो जिसके साथ अन्वय-व्यतिरेक धारण नहीं करता वह उस वस्तु का धर्म नहीं होता, उदा० शैत्य अग्नि का । लिंग-संख्या आदि भी वस्तु के अन्वय-व्यतिरेक को धारण नहीं करते, अत: वे भी वस्तु के धर्म नहीं है । वस्तु के अन्वय-व्यतिरेक वस्तुधर्मत्व के व्यापक हैं, उन की अनुपलब्धि को हेतु बना कर यहाँ व्याप्य का अभाव सिद्ध किया है । इस हेतु को कोई असिद्ध नहीं कह सकता । कारण यह है कि लिंग अगर वास्तव में वस्तुरूप होता तो संस्कृत भाषा में जो एक ही 'तट' नामक वस्तु के लिये 'तट:, तटी, तटम्' इस प्रकार तीन लिंगो के सूचक पदों की प्रवृत्ति होती है इस के आधार पर एक ही 'तट' वस्तु में (लिंग वास्तविक होने पर) परस्पर विरुद्ध तीन लिंगो की प्रसक्ति होगी । एक ही वस्तु में स्त्रीत्व-पुंस्त्व और नपुंसकत्व ये तीन स्वभाव युक्तिसंगत नहीं है फिर भी मानेंगे तो उन की आधारभूत वस्तु के एकत्व का भंग होगा । विरुद्ध धर्मों से अध्यासित वस्तु को यदि 'एक' मानने का आग्रह रखेंगे तो फिर विश्वमें कहीं भी भेद सुरक्षित न रहने से सारा विश्व एक वस्तुरूप मानना पडेगा । फलत: किसी एक वस्तु के उत्पाद-विनाश होने पर पूरे विश्व का सहोत्पाद - सहविनाश मानने की आपत्ति होगी। ★लिंगत्रय के सांकर्य की आपत्ति* दूसरी बात यह है कि हर किसी वस्तु में एक या दूसरे शब्द से तीनों लिंगो का निरूपण होता है, उदा० संस्कृत भाषा में 'वस्तु' शब्द से प्रत्येक चीज का नपुसंकरूप से, पदार्थशब्द से पुरुषरूप से और व्यक्तिशब्द से स्त्रीरूप से प्रतिपादन होता है । फलत: तद् तद् वस्तु विषयक चित्त (विज्ञान) भी रंग-बिरंगी रत्न की तरह तीनों लिंग से संकीर्ण स्वभाववाले मानने की आपत्ति होगी। यदि कहें - 'वस्तुमात्र लिंगत्रयविशिष्ट होने पर भी वक्ता का जिस लिंग के प्रतिपादन में तात्पर्य होगा, सिर्फ उसी लिंग का अवभासक चित्त श्रोता को वक्ता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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