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________________ १०८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कल्पानुपपत्तिस्तत्र' इति । एवमन्येषामप्यनित्यादिशब्दानां प्रयोगोऽनर्थकः प्रयोगे वा पर्यायत्वमेव स्यात् तरु-पादपादिशब्दवत् । उक्तं च - "अन्यथैकेन शब्देन व्याप्त एकत्र वस्तुनि । बुद्धया वा नान्यविषय इति पर्यायता भवेत् ॥" (द्रष्टव्यम् प्र० वा. ३-५१) इति । अथ 'भवत्पक्षेऽप्येकेन शब्देनाभिहिते वस्तुनि भेदान्तरे संशय-विपर्यासाभावप्रसंगः शब्दान्तरणवृत्तिप्रसंगच कस्मान भवति ?'- संवृत्या शब्दार्थाभ्युपगमानास्माकमयं दोषः । तथाहि - नीलशब्देनानीलपदार्थव्यावृत्तमुत्पलादिष्पप्लवमानरूपतया तेषामप्रतिक्षेपकमध्यवसितबाह्यरूपं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजायते पुनरुत्पलश्रुत्या तदेवानुत्पलव्यावृत्तमारोपितवाकिवस्तुस्वरूपमुपजन्यते, तदेवं क्रमेणानीलानुत्पलव्यावृत्तमध्यवसितबाहीकरूपं भ्रान्तं विकल्पप्रतिविम्बकमुपजन्यत इति तदनुरोधात् सांवृतं सामानाधिनीलशब्द से वस्तु का सम्पूर्णरूप से प्रकाशन हो गया' हमारे इस वाक्य का विवक्षित अर्थ यह है कि नील शब्द से वस्तु जैसी है वैसा ही उस का प्रतिपादन हो गया । कोई ऐसा स्वभाव उस वस्तु का नहीं रह जाता जो नील शब्द से अनुक्त रह गया हो और उसके लिये 'कमल' शब्दप्रयोग की आवश्यकता खडी रहे । कारण, वस्तु निरंश होती है, इसलिये एक नीलादि शब्द से उस का पूरा प्रतिपादन हो सकता है अधूरा नहीं । अत: उद्द्योतकर आदि नैयायिक जो यह बोलते हैं कि 'निरंश वस्तु में सर्व या एकदेश के विकल्प संगत नहीं है', यह सिर्फ वाक्छल के अलावा और कुछ नहीं है चूंकि सर्व शब्द से हम क्या कहना चाहते हैं वह पहले समझना चाहिये। तथा, कमलशब्द का प्रयोग जैसे नैयायिक मत में निरर्थक ठहरा वैसे 'घट अनित्य' इत्यादि वाक्यों में अनित्यादिशब्दों का प्रयोग भी सार्थक सिद्ध होना कठिन है । फिर भी यदि करते हैं तो वहाँ पर्यायता ही प्रसक्त होती है जैसे वृक्ष शब्द के बाद 'तरु' शब्द का प्रयोग करे तो वह पर्यायवाची से अतिरिक्त कुछ नहीं है। प्रमाणवार्तिककार ने भी यही कहा है - ____ "एक शब्द या बुद्धि सर्वरूप से यदि किसी एक वस्तु को विषय करेगा तो वह सर्वरूप से ज्ञात हो जाने के कारण और कोई विषय शेष न रहने से दूसरे शब्द का प्रयोग (निरर्थक हो जायेगा या) सिर्फ पर्यायतादर्शक ही रहेगा।" ★ अपोहवाद में सांवृत सामानाधिकरण्य★ यदि हमारे सामने कोई ऐसा कहें कि - "बौद्धमत में भी अपोहवाद में नीलादि एक शब्द से सम्पूर्ण वस्तु का निरूपण हो जाने पर कमलादि अन्य स्वरूप के बारे में न तो संशय होगा, न भ्रम हो सकता है। फलत: 'कमल' आदि शब्दों की निरर्थकता (प्रवृत्ति अभाव) का प्रसंग आप के मत में क्यों नहीं होगा ?" - तो इस का उत्तर यह है कि अपोहवाद में काल्पनिक शब्दार्थ माना गया है इसलिये उपरोक्त दोष निरवकाश है । तात्पर्य यह है कि - हमारे मतानुसार, 'नील' शब्द से बाह्यरूप से अध्यवसित विकल्पात्मक प्रतिबिम्ब पैदा होता है जो अनील से व्यावृत्त होता है किन्तु कमलादि के बारे में अनिश्चयात्मक होने से उन का व्यावर्त्तक नहीं होता । अत: जब 'कमल' शब्द का प्रयोग होता है तब 'अकमल' व्यावृत्ति प्रतिबिम्ब पैदा होता है जिस में बाह्य वस्तुस्वरूप आरोपित रहता है । इस प्रकार क्रमश: अनीलव्यावृत्त और अकमलव्यावृत्त विकल्पप्रतिबिम्ब पैदा होते हैं जिन में बाह्यरूपता आरोपित होने के कारण ये भ्रमात्मक होते हैं, और इन में वैसे ही कल्पनानुसार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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