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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ यच्चोक्तम् - 'अथान्यापोहवद् वस्तु वाच्यमित्यभिधीयते' (६६-१०) इति, तत्रापि यदि हि व्यावृत्ताद् भावाद् व्यावृत्ति मान्या भवेत् स्यात् तदा तद्वत्पक्षोदितदोषप्रसंगः यावता नान्यतो व्यावृत्ताद् भावादन्या व्यावृत्तिरस्ति अपि तु व्यावृत्त एव भावो भेदान्तप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायां तथाऽभिधीयते, तेन यथा जाती प्राधान्येन वाच्यायां पारतत्र्येण तद्वतोऽभिधानात् तद्गतभेदानाक्षेपात् तैः सह सामानाधिकरण्यादेरभावप्रसङ्ग उक्तः (६७ - ४) तद्वदपोहपक्षे नावतरति, व्यतिरिक्तान्यापोहवतोऽनभिधानात् ।
न ह्यस्मन्मते परपक्ष इव सामानाधिकरण्याभावः । तथाहि 'नीलम्' इत्युक्ते पीतादिव्यावृ. तपदार्थाध्यवसायि भ्रमरकोकिलाऽञ्जनादिषु संशय्यमानरूपं विकल्पप्रतिबिम्बकमुदेति, तच्चोत्पलशब्देन कोकिलादिभ्यो व्यवच्छिद्यानुत्पलव्यावृत्तवस्तुविषये व्यवस्थाप्यमानं परिनिश्चितात्मकं प्रतीयते, तेन परस्परं यथोक्तबुद्धिप्रतिबिम्बकापेक्षया व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावान्नीलोत्पलशब्दयोर्विशेषण-विशेष्यभावो न विरुद्धयते, द्वाभ्यां वाऽनीलानुत्पलव्यावृत्तैकप्रतिबिम्बात्मकवस्तुप्रतिपादनादेकार्थवृत्तितया सामानाधिकरण्यं च भवतीति। परपक्षे तु तद्व्यवस्था दुर्घटा । तथाहि - विधिशब्दार्थवादिपक्षे नीलादिशब्देन नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते
यह जो कहा था - "यदि अन्यापोह नहीं किन्तु अन्यापोहवाली वस्तु को शब्दार्थ मानेंगे तो परतत्रता के कारण नीलादि शब्द से उत्पलादि के भेद का निरूपण नहीं हो सकेगा" - इस के ऊपर यह कहना है कि व्यावृत्ति को यदि हम व्यावृत्तभाव से भिन्न मानते तब अन्यापोहवाली वस्तु की शब्दार्थता के पक्ष में जो दोष कहा है वह उचित होता । किन्तु, हमारे मतमें व्यावृत्ति व्यावृत्त भाव से भिन्न नहीं होती, अन्य भेदों का प्रतिक्षेप कर के किसी एक शुद्ध भाव मात्र की जिज्ञासा हो तब वही भाव व्यावृत्ति कहा जाता है । हाँ, सिर्फ अकेली जाति को ही शब्दार्थ माने तो जातिवाचक शब्द से जातिवान् का सीधा निरूपण न हो कर जातिपारतन्त्र्येण होने से जातिमद् पदार्थ के भेदों का निरूपण शक्य न होगा अत: उन के साथ सामानाधिकरण्य आदि के अभाव का प्रसंग जाति-शब्दार्थ पक्ष में लग सकता है। किन्तु अपोहपक्ष में उस प्रसंगदोष को अवकाश नहीं है । कारण, अपोह से भिन्न अन्यापोहवाली वस्तु का अभिधान हम नहीं मानते किन्तु अपोहात्मक ही व्यावृत्तवस्तु रूप प्रतिबिम्ब का अभिधान मानते हैं ।
★ सामानाधिकरण्य स्वपक्ष-परपक्ष में कैसे ?* दूसरे के पक्ष की तरह हमारे पक्ष में सामानाधिकरण्य न घट सके ऐसा नहीं है । देखिये - 'नील' शब्द सुन कर श्रोता को ऐसा एक विकल्पात्मक प्रतिबिम्ब खडा होता है जो पीतश्वेतादिव्यावृत्त पदार्थ का निश्चायक होते हुए भी 'भ्रमर होगा या कोयल होगी या कज्जल होगा' इस प्रकार संशयारूढ होता हैं । फिर जब 'कमल' शब्द को सुनता है तो कोयलादि का व्यवच्छेद होने से अकमल व्यावृत्त वस्तु के विषय में व्यवस्थित निश्चयात्मक प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है । इस ढंग से परस्पर पूर्वोक्त बुद्धिप्रतिबिम्बों की अपेक्षा से व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदक भाव व्यक्त होने से नील और कमल शब्दों में विशेष्य-विशेषण भाव मानने में कोई विरोध नहीं होता । अथवा दोनों शब्द से अनीलव्यावृत्त और अकमलव्यावृत्त एक ही प्रतिबिम्बात्मक वस्तु का प्रतिपादन मान लेने से एकार्थवृत्तित्त्व घट सकता है और इससे सामानाधिकरण्य भी घट जाता है।
अन्य दर्शनों में ऐसी व्यवस्था दुर्घट है। देखिये - विधिरूप शब्दार्थ मानने वालों के पक्ष में नीलादिशब्द से नील आदि स्वलक्षण का प्रतिपादन मानने पर उसी के अन्य विशेषों के बारे में 'कमल होगा या कज्जल
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