________________
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् "विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते' (त० सं० १०९५) (६३-१०) इत्यत्रापि न ह्यस्माभिः सर्वथा विधिरूपः शब्दार्थो नाभ्युपगम्यते - येनैतद् भवताऽनिष्टत्वप्रसङ्गापादनं क्रियते - किन्तु शब्दा(द)र्थाध्यवसायिनश्चेतसः समुत्पादात् संवृतो विधिरूपः शब्दार्थोऽभ्युपगम्यत एव । तत्त्वतस्तु न किंचिद् वाच्यमस्ति शब्दानामिति विधिरूपस्तात्त्विको निषिध्यते, तेन सांवृतस्य विधिरूपस्य शब्दार्थस्येष्टत्वात् स्वार्थाभिधाने विधिरूपे सत्यन्यव्यतिरेकस्य सामर्थ्यादधिगतेवि(वि)धिपूर्वको व्यतिरेको युज्यत एव । स्यादेतद् - यदि विधिरूपः शब्दार्थोऽभ्युगम्यते कथं तर्हि हेतुमुखे लक्षणकारेण "असम्भवो विधिः" [हेतु.] इत्युक्तम् ?- सामान्यलक्षणादेर्वाच्यस्य वाचकस्य वाऽसम्भवात् परमार्थतः, शब्दानां विकल्पानां च परमार्थतो विषयाऽसम्भवात् परमार्थमाश्रित्य विधेरसम्भव उक्त आचार्येण इत्यविरोधः ।
'अपोहमात्रवाच्यत्वम्' (६४-६) इत्यादावपि एकमेवानीलानुत्पलव्यावृत्ताकारमुभयरूपं प्रति- विम्बकं नीलोत्पलशब्दादुदेति नाभावमात्रम् अतः शबलार्थाऽध्यवसायित्वमध्यवसायवशानीलोत्पलादिशब्दानामस्त्येवेति तदनुरोधात् सामानाधिकरण्यमुपपद्यत एव ।
* विधिस्वरूप शब्दार्थ का स्वीकार ★ यह जो कहा था - "जो लोग विधिरूप शब्दार्थ को नहीं मानते उन के मतमें व्यतिरेक (=व्यावृत्ति)रूप शब्दार्थ भी नहीं घट सकता' - इस के सामने यह कहना है कि हम सर्वथा विधिरूप शब्दार्थ नहीं मानते ऐसा है ही नहीं जिस से कि आप को अनिष्ट प्रसंगापादन करने का अवसर मिले ! हम तो मानते हैं कि शब्द से अर्थाध्यवसायि विकल्पज्ञान का उदय होता है इसलिये काल्पनिक विधिरूप शब्दार्थ है ही । परमार्थ से तो शब्दों का कोई वाच्य नहीं है यह पहले ही कह दिया है, अत: तात्त्विक विधिरूप शब्दार्थ का ही निषेध हम करते हैं । काल्पनिक विधिरूप शब्दार्थ हमें इष्ट ही है, इसीलिये शब्द के द्वारा काल्पनिक विधिरूप अपना शब्दार्थ निरूपित हो जाने पर अन्यव्यावृत्तिरूप अर्थ भी सामर्थ्य से ज्ञात हो सकता है, अत: विधिपूर्वक व्यावृत्ति का बोध हमारे मत में संगत ही है।
प्रश्न : यदि आप विधिरूप शब्दार्थ मानते हैं तो फिर हेतुमुखसंज्ञक प्रकरण में लक्षणकारने 'विधि अर्थ असम्भव है' ऐसा क्यों कहा है ?
उत्तर : वास्तवमें कोई सामान्यादिरूप वाच्य या वाचक सम्भवित नहीं है । शब्द और विकल्प का कोई पारमार्थिक विषय नहीं होता है, इसलिये आचार्यने हेतुमुख में पारमार्थिक विधिरूप शब्दार्थ का ही निषेध करने के लिये विधिअर्थ का असम्भव दिखाया है । इसलिये कोई विरोध नहीं है ।
★ अपोहवाद में सामानाधिकरण्य उपपत्ति ★ पहले जो कहा था - अपोहमात्र को शब्दवाच्य मानेंगे तो विशेषण-विशेष्य का सामानाधिकरण्य घटेगा नहीं...इत्यादि यहाँ हम कहेंगे कि नीलोत्पल शब्द से सिर्फ अभावमात्र की प्रतीति नहीं होती किन्तु एक ऐसे प्रतिबिम्ब का उदय होता है जो अनील-अनुत्पल उभय से व्यावृत्त उभयरूप अर्थाकारात्मक होता है और वही उस का प्रतिपाद्य अर्थ है। इसलिये नीलोत्पलादि शब्दों में भी अध्यवसाय के बल से विविध रूपवाले अर्थ का भान कराने की ताकात अपोहपक्ष में है ही और ऐसे विविध रूपवाले एक अर्थ का भान कराने से वहाँ नील और उत्पल शब्द में सामानाधिकरण्य भी संगत होता है ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org