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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
१०१ श्वेतादिषु सामान्यं वाच्यं वाचकं च परमार्थतोऽस्त्येव ततो न तैर्व्यभिचारः । असदेतत्, सामान्यस्य विस्तरेण निरस्तत्वात् (प्र. खं० पृ. ४५२) न तेषु सामान्यं वाच्यं वाचकं वा महाश्वेतादिष्वस्तीति कथं नानैकान्तिकता हेतोः ? स्यादेतत् यद्यपि तत्र वस्तुभूतं नास्ति सामान्यं वाच्यम्, वाचकं (तु) महाश्वेतादिशब्दस्वलक्षणमस्त्येव । न, सर्वपदार्थव्यापिनः क्षणभंगस्य प्रसाधितत्वान शब्दस्वलक्षणस्य वाचकत्वं युक्तम्, क्षणभङ्गित्वेन तस्य संकेताऽसम्भवात् व्यवहारकालानन्वयाञ्चेति प्रतिपादितत्वात् (२०-५) ।
"तस्मात्तव्यमेष्टव्यं प्रतिबिम्बादि सांवृतम् । तेषु तद्व्यभिचारित्वं दुर्निवारमतः स्थितम् ॥" [त०सं०१०९३] ___'द्वयम्' इति वाच्यं वाचकं च, 'प्रतिबिम्बादि' इति 'आदि' शब्देन निराकारज्ञानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किश्चित् प्रतिनियतमनर्थेऽर्थाध्यवसायिरूपत्वं विज्ञानस्यावश्यमङ्गीकर्तव्यमिति दर्शयति, 'तेषु' इति कल्पनोपरचितेष्वर्थेषु, 'तद्' इति तस्मात् तस्य वा हेतोर्व्यभिचारित्वं तद्वयभिचारित्वम् ।
सामान्यवादी : यहाँ भी महाश्वेतादि पात्र व्यक्तिरूप से काल्पनिक होने पर भी सामान्यरूप से वाच्य और वाचक दोनों वास्तविक है । तात्पर्य, 'महाश्वेता' आदि शब्दसामान्य महाश्वेतागत स्त्रीत्वादिसामान्य का वाचक बन सकता है । इसलिये साध्यद्रोह नहीं होगा।
अपोहवादी : यह बात भी गलत है क्योंकि सामान्य जैसा कोई वास्तविक अर्थ है ही नहीं, विस्तार से उस का निरसन प्रथमखंड में किया जा चुका है। अत: महाश्वेतादि कल्पित पात्रों में न तो कोई सामान्य वाच्य है न तो कोई शब्द सामान्य उस का वाच्य हो सकता है । तो फिर अवस्तुत्व हेतु काल्पनिक गम्यगमकभाववाले महाश्वेतादि में रहने से साध्यद्रोह क्यों नहीं होगा ?
___सामान्यवादी : भाई देखो, महाश्वेतादि अवश्य काल्पनिक है इसलिये वाच्य भले ही असत् हो, किन्तु वाचकरूप से अभिमत महाश्वेतादि शब्द स्वलक्षण तो प्रत्यक्ष ही हैं, सामान्य को भले आप न मानिए किन्तु शब्दस्वलक्षण में वास्तविक वाचकत्व को क्यों नहीं मान सकते ? अब वास्तविक महाश्वेतादि में न तो काल्पनिक वाचकत्व है, न अवस्तुत्व, तो साध्यद्रोह कैसे होगा ?
अपोहवादी : अरे भाई ! पहले ही हमने सर्वपदार्थों में क्षणिकत्व की व्यापकता को सिद्ध कर दिया है तो क्षणिक शब्दस्वलक्षण में वाचकत्व कैसे घटेगा ? क्षणिकता के कारण न तो उस में संकेत का सम्भव है, न तो वह व्यवहारकाल तक जीने वाला है यह सबसे पहले कहा जा चुका है।
निष्कर्ष, "उन दोनों को प्रतिबिम्बादि रूप मान कर काल्पनिक वाच्य और वाचक होने का मानना पडेगा। अत: उन काल्पनिक अर्थों में अवस्तुत्व हेतु करने पर उस में साध्यद्रोह रूप दोष भी अटल रहेगा - यह सिद्ध होता है ।"
यहाँ जो तत्त्वसंग्रह का तस्मात् तद्वय....श्लोक है उसमें 'द्वय' शब्द का अर्थ है वाच्य और वाचक । 'प्रतिबिम्बादि' शब्द में 'आदि' शब्द यह दिखाता है कि ज्ञान को निराकार मानने के मत में भी अर्थभूत जो नहीं है उस में 'अर्थ है' ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न करने वाला, कोई नियतरूप विज्ञान में रहनेवाला अवश्य मानना होगा । 'तेषु' शब्द का मतलब है कल्पना से कल्पित अर्थों में, और 'तद्व्यभिचारित्व' इस समास में 'तद्' शब्द से यह कहना है कि 'तस्मात् हेतोः' अथवा 'तस्य हेतोः' अर्थात् 'उस हेतु का' । तद् शब्द का व्यभिचारित्व के साथ षष्ठीसमास होने से यह अर्थ कर सकते हैं कि हेतु में साध्यद्रोह होगा ।
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