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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___'अगम्यगमकत्वं स्यात्'...इत्यत्र (६३-२) प्रयोगेऽपि यदि 'अवस्तुत्वात्' इति सामान्येनो- पादीयते तदा हेतुरसिद्धः, यतः प्रतिबिम्बात्मनोर्वाच्य-वाचकापोहयोर्बाह्यवस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वात् सांवृतं वस्तुत्वमस्त्येव । अथ पारमार्थिकमवस्तुत्वमाश्रित्य हेतुरभिधीयते तदा सिद्धसाध्यता । नहि परमार्थतोऽस्माभिः किञ्चिद् वाच्यं वाचकं चेष्यते । यत उक्तम् [तत्त्वसंग्रहे] - "न वाच्यं वाचकं चास्ति परमार्थेन किञ्चन । क्षणभंगिषु भावेषु व्यापकत्ववियोगतः ॥१०८९॥"
क्षणिकत्वेन संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वाऽभावात् स्वलक्षणस्येति भावः ।।
स्यादेतत् - नाऽस्माभिस्तात्त्विको वाच्यवाचकभावो निषिध्यते, किं तर्हि ! तात्त्विकीमपोहयोरवस्तुतामाश्रित्य सांवृतमेव गम्य-गमकत्वं निषिध्यते न भाविकम् तेन (न) हेतोरसिद्धता पि (ता, नापि) सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषो भविष्यति, द्वयोरपि हि सांवृतत्वे तात्त्विकत्वे वाऽऽश्रीयमाणे स्यादेतदोषद्वयमिति । नैवम् - हेतोरनैकान्तिकताप्रसक्तेः, कल्पनारचितेषु हि महाश्वेतादिष्वर्थेषु तद्वाचकेषु च शब्देषु परमार्थतो वस्तुत्वाभावेऽपि सांवृतस्य वाच्यवाचकभावस्य दर्शनात् । स्यादेतत् - तत्रापि महाभाव नहीं घटेगा - यहाँ कहना यह है 'अवस्तुरूप है इसलिये' इस हेतुप्रयोग में पारमार्थिक या काल्पनिक विशेषण के विना सामान्यत: अवस्तुत्व को यदि हेतु करेंगे तो वह असिद्ध होगा क्योंकि प्रतिबिम्बात्मक जो वाच्यापोह और वाचकापोह हैं उन में भ्रान्त लोगों को बाह्यवस्तुत्वबुद्धि होती है इसलिये काल्पनिक वस्तुत्व तो उनमें सिद्ध ही है। अगर पारमार्थिक अवस्तुत्व को हेतु करेंगे तो सिद्धसाध्यता दोष होगा क्योंकि परमार्थ से न तो हम किसी को वाच्य (गम्य) मानते हैं न वाचक (गमक) । कहा भी है - "परमार्थ से तो न कोई वाचक है न कोई वाच्य, क्योंकि क्षणभंगुर भावों में एकाधिकक्षणव्यापकत्व ही नहीं है।" - तात्पर्य यह है कि स्वलक्षण शब्द या अर्थ संकेतकाल में रहेंगे तो व्यवहारकाल में नहीं रहेंगे, व्यवहारकालमें रहेंगे तो संकेतकाल में नही होंगे - क्योंकि वस्तुमात्र क्षणभंगुर है।
★ अवस्तुत्व हेतु से काल्पनिक गम्यगमकभाव का निषेध* सामान्यवादी : अवस्तुत्व हेतु से हम वास्तविक गम्य-गमक भाव का निषेध प्रदर्शित नहीं करते हैं। तो ? अर्थापोह और शब्दापोह रूप दो असद् वस्तु में तात्त्विक अवस्तुत्व को हेतु कर के काल्पनिक भी गम्य-गमक भाव का निषेध करते हैं। भावात्मक अर्थ और शब्द में उस का निषेध नहीं करते हैं । अत: हेतु असिद्ध नहीं है, और सिद्धसाध्यता यह प्रतिज्ञादोष भी निरवकाश है । हाँ, यदि हम साध्य (गम्यगमकभाव निषेध) और हेतु दोनों को काल्पनिक लेते तब तो अवस्तुभूत अपोहयुगल में काल्पनिक अवस्तुत्व न होने से (अर्थात् काल्पनिक वस्तुत्व होने से) हेतु में असिद्धता दोष सावकाश होता । तथा यदि हम साध्य और हेतु दोनों को पारमार्थिक लेते तब पारमार्थिक गम्यगमक भाव के निषेध से सिद्धसाध्यता दोष होता । किन्तु हम तो तात्त्विक अवस्तुत्व हेतु से काल्पनिक गम्य-गमकभाव का निषेध करते हैं तो कोई दोष नहीं है।
अपोहवादी : यह बात गलत है क्योंकि ऐसे तो हेतु में साध्यद्रोह दोष प्रसक्त होगा । कारण, कादम्बरी आदि काव्यों में जो वाच्यभूत महाश्वेतादि पात्र हैं वे काल्पनिक होने से अवस्तु ही हैं और वे काल्पनिक होने से उन के वाचक महाश्वेतादि शब्द भी काल्पनिक ही होंगे । इस प्रकार इन दोनों में अवस्तुत्व होने पर भी काल्पनिक वाच्यवाचकभाव तो रहता है इसलिये अवस्तुत्व हेतु साध्याभावसमानाधिकरण हो गया ।
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