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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ वासना' इति (६१-५) तदसिद्धम् अनैकान्तिकं च । यतः “अवस्तुविषयेऽप्यस्ति चेतोमात्रविनिर्मिता । विचित्रकल्पनाभेदरचितेष्विव वासना ॥ ततश्च वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपताऽपि वा । प्रकल्पतेऽप्यपोहानां कल्पनारचितेष्विव ॥" (तत्त्व० सं० १०८५-८६) 'अवस्तुविषयं चेतो नास्ति' इति (६१-५) एतदसिद्धम् । तथाहि - उत्पाद्यकथाविषयसमुद्भूतस्वत्वाकारसमारोपेण प्रवर्त्तत एव चेतः, तथा(वा)ऽनागतसजातीयविकल्पोपपत्तये अनन्तरचेतसि वासनामाधत्ते एव । यतः पुनरपि सन्तानपरिपाकशात् प्रबोधप्रत्ययमासाद्य तथाविधमेव चेतः समुपजायते, तद्वदपोहानामपि परस्परतो भेदः सद्रूपता च कल्पनावशाद् भविष्यतीत्यनैकान्तिकता । यच्च - 'शब्दभेदोऽप्यपोहनिमित्तो न युक्तः' (६२-८) इति - अत्र "यादृशोऽर्थान्तरापोहः = 'प्रतिविम्बात्मको' वाच्योऽयं प्रतिपादितः शब्दान्तरव्यपोहोऽपि तागेव = 'प्रतिबिम्बात्मक' एवावगम्यते ॥" (त० सं० १०८७) इति वाचकापोहपक्षेऽपि दूषणं विस्तरतः प्रतिपादितमयुक्तं दृष्टव्यम् । अश्वादि से विलक्षण गोपिण्ड भावरूप ही माना गया है, अभावरूप नहीं, इस लिये उस की भावरूपता ही होने दो । तथा गोपिण्ड में अगो का वैलक्षण्य भी मानते हैं, इसलिये अगो में गोत्वापत्ति निरवकाश है । इसलिये (त० सं० श्लो० ९५३ में) पहले जो यह कहा है कि अभाव का अभाव यदि भाव रूप होगा तो.. इत्यादि वह सब निरस्त हो जाता है। ★ असत् की वासना का सम्भव★ यह जो कहा था - "आलम्बनभूत वस्तु असत् होने पर तद्विषयक वासना का भी सम्भव नहीं है। - यह असिद्ध और अनैकान्तिक भी है, क्योंकि - "विचित्र कल्पनाओं के भेद से कल्पित वस्तुओं की तरह अवस्तुभूत अर्थ के बारे में चित्तमात्र से निर्मित वासना होती है । इसलिये अपोहों में वासनाभेद प्रयुक्त भेद की और सद्पता की कल्पना की जा सकती है। जैसे कि कल्पना से कल्पित वस्तुओं में कल्पनाप्रयुक्त भेद होता है।" तात्पर्य यह है कि अवस्तु -(तुच्छ वस्तु) सम्बन्धि चित्त ही नहीं होता - यह बात असिद्ध है । देखिये - उत्पाद्य यानी भावि में रची जाने वाली कथा के विषय में मान लो कि 'सचमुच ऐसा हो गया न हो' इस ढंग से वस्तु-आकार का आरोप करता हुआ चित्त प्रवृत्त होता ही है। और वह चित्त अपने भावि सजातीय विकल्प को उत्पन्न करने के लिये अग्रिमचित्त में वासना का भी आधान करता है। जिससे कि फिर से भी पारम्परिक परिपाक के प्रभाव से उद्बोधक निमित्त को प्राप्त कर, वैसा ही चित्त उत्पन्न हो जाता है। ठीक इसी प्रकार अपोहों में भी परस्पर भेद कल्पना के प्रभाव से हो सकेगा, और उनमें सद्रूपता भी काल्पनिक बन सकेगी । अत: अवस्तु में वासना नहीं होती यह नियम अनैकान्तिक सिद्ध हुआ। ★ वाचकापोह पक्ष में दूषणों का निरसन ★ ___ यह जो कहा था - शब्दभेद भी अगर अपोहमूलक मानेंगे तो वह युक्त नहीं - इस के सामने यह कहेंगे कि प्रतिबिम्बात्मक अर्थान्तरापोह से जैसे वाच्य की उपपत्ति की गयी है वैसे ही प्रतिबिम्बात्मक शब्दान्तरापोह मान कर वाचक की उपपत्ति हो सकती है । इसलिये वाचकापोह पक्ष में जो सविस्तर दोषारोपण किया गया है वह युक्तिहीन सिद्ध होता है। तथा पहले जो कहा था – अर्थापोह एवं शब्दापोह दोनों अवस्तुरूप है इसलिये उन के बीच गम्य-गमक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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