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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ____ तथाहि - प्रकृति-ईश्वर-कालादिकृतत्वं भावानां भवद्भिर्मीमांसकैरपि नेष्यत एव तस्य च प्रतिषेधे सत्यपि यथा न वस्तुत्वमापयते तथा अपोह्यत्वेऽप्यभावस्य वस्तुत्वापत्तिर्न भविष्यतीत्यनेकान्तः । यदुक्तम् 'तत्रासतोऽपि वस्तुत्वमिति क्लेशो महान् भवेत्' (६०-७) इति तदप्यनेनैवानैकान्तिकत्वप्रतिपादनेन प्रतिविहितमिति दर्शयति 'नातो असतोऽपि'........ इत्यादिना ।
_ 'तदसिद्धौ न सत्ताऽस्ति न चासत्ता प्रसिद्धयति' (तत्त्व. ९५८) इत्यत्र (६०-७) अभावस्य यथोक्तेन प्रकारेणाऽसिद्धावपि भावस्य सत्ता सिद्धयत्येव, तस्य स्वस्वभावव्यवस्थितत्वात् । या च भावस्य यथोक्तेन प्रकारेण सिद्धिः सैव सत्तेति प्रसिद्धयति । एतदेवोक्तम् - (तत्त्व० सं० १०७८)
___ "अगोतो विनिवृत्तश्च गौर्विलक्षण इष्यते । भाव एव ततो नायं गौरगौमें प्रसज्यते ॥ 'भाव एव भवेत्' (५९-७) इत्येतद् नानिष्टापादनम् इष्टत्वात्। तथाहि - अगोरूपादश्चादेगर्भािवविशेषरूप एव विलक्षण इष्यते नाभावात्मा, तेन भाव एव भवेत्, अगोतश्च गोवैलक्षण्यस्येष्टत्वादगोर्न गोत्वप्रसङ्गः । एतेन यदुक्तम् 'अभावस्य च योऽभावः' (५९-७) इत्यादि तत् प्रतिविहितम् । यच्चोक्तम् 'न ह्यवस्तुनि
___ अभाव में अपोह्यता को हेतु बना कर वस्तुत्व सिद्ध करने का जो प्रयास किया गया है वहाँ अब उभयपक्षसिद्ध उदाहरण को प्रस्तुत कर के 'प्रकृतीशा०'....श्लोक से साध्यद्रोह दिखाया जाता है - (यह बात मीमांसकों के सामने कही जाती है) मीमांसको की ओर से पदार्थसमूह में प्रकृतिजन्यत्व या ईश्वरजन्यत्व या कालादिजन्यत्व नहीं माना जाता किंतु उनका निषेध (अपोह) किया जाता है, किन्तु इतने मात्र से प्रकृतिजन्यत्व या ईश्वरादिजन्यत्वरूप निषेध्य में वस्तुता तो नहीं मानी जाती । तो इसी तरह असत्रूप अपोह का निषेध किया जाय इतने मात्र से अपोह में भावत्व का क्लेशापादन निरवकाश है। अर्थात् मीमांसकमत में प्रकृतिआदिजन्यत्व में अपोह्यता होने पर भी वस्तुत्व न होने से उक्त अनुमान के हेतु में साध्यद्रोह दोष स्पष्ट है । मीमांसक ने जो पहले कहा था कि 'असत् में भी वस्तुत्वप्रसक्ति का महान् क्लेश होगा' इस का भी इस साध्यद्रोहनिरूपण से ही प्रतिकार हो जाता है - यह बात 'नातो असतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कश्चन' (= असत् में वस्तुत्व की आपत्ति का कोई क्लेश नहीं है) इस श्लोकार्ध से कही गयी है।
★ अभाव के विना भी भावसिद्धि शक्य* यह जो कहा था कि - "अभाव के अपोह्य होने से वस्तुरूप मान लेने पर अभाव अभावरूप से असिद्ध हो जानेसे भाव की सत्ता भी सिद्ध न होगी क्योंकि भावसत्ता अभावव्यवच्छेदावलम्बी है । तथा सत्ता सिद्ध न होने पर असत्ता भी लुप्त हो जायेगी क्योंकि सत्ता के न होने पर किस के निषेध से असत्ता सिद्ध हो ?" - यहाँ यह कहना है कि अभाव की आप के कथनानुसार असिद्धि हो जाने पर भी भाव की सत्ता सिद्ध होने में कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि अभाव न होने पर भी भाव तो अपने स्वभाव में अवस्थित रह ही सकता है। और अभावनिरपेक्ष जो भाव की सिद्धि है वही सत्ता के रूप में प्रसिद्ध है । यही बात तत्त्वसंग्रह श्लो. १०८९ में कहते हैं "अगोरूप अभाव का निवृत्तिरूप अभाव पूर्व अभाव से विलक्षण गौरूप ही माना जाता है इसलिये वह भावरूप ही है । अत: गौ और अगौ समान बन जाने का प्रसंग नहीं हो सकता" । मतलब यह है कि जो पहले श्लो० ९५३ (त० सं०) में कहा था कि 'अभाव का अभाव यदि विलक्षण होगा तो वह भावरूप ही होगा' यह कथन हमारे लिये इष्टापत्तिरूप होने से अनिष्टकारक नहीं है । देखिये - अगोरूप
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