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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
यच्वोक्तम् - 'तदापोह्येत सामान्यम्' (५८-११) इत्यादि, तत्रापि 'अपोह्यवात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वमनैकान्तिकत्वं च व्यक्तीनामेवापोहस्य प्रतिपादितत्वात् । न चापोहेऽपि वस्तुता, साध्यविपर्यये हेतोधिकप्रमाणाभावात् । यदपि 'अभावानामपोह्यत्वं न' ...(५८-१२) इत्यादि, तत्र [त. सं. १०८०-८१] "नाभावोऽपोहते होवं नाभावो भाव इत्ययम् । भावस्तु न तदात्मेति तस्येष्टैवमपोह्यता ॥ यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोह्य उच्यते । न भावोऽभावरूपश्च तदपोहे न वस्तुता ॥"
'नाभावः' इत्येवमभावो नापोहाते येनाभावरूपतायास्त्यागः स्यात्, किं तर्हि ! भावो यः स विधिरूपत्वादभावरूपविवेकेनावस्थित इति सामर्थ्यादपोह्यत्वं तस्याभावस्येष्टत्वम्(एम्) तदेव स्पष्टीकृतम् 'यो नाम'..इत्यादिश्लोकेन । 'तदपोहे' इति तस्याभावस्यैवमपोहे सति न वस्तुता प्राप्नोति । अत्रोभयपक्षप्रसिद्धोदाहरणप्रदर्शनेनाऽनैकान्तिकतामेव स्फुटयति -
प्रकृतीशादिजन्यत्वं न हि वस्तु प्रसिद्धयति ॥ [त० सं० १०८२]
नातोऽसतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कञ्चन । [त० सं० १०८३] के सामने यह कहना है कि 'व्यक्ति शब्दवाच्य नहीं है' यह बात ही जूठ है । देखिये - हमने जो व्यक्ति वाच्य होने का कहा है वह परमार्थ को सोचते हुए कहा है। मतलब, व्यक्ति में पारमार्थिक शब्दवाच्यत्व नहीं है, किन्तु व्यक्ति में काल्पनिक शब्दवाच्यत्व का हमने निषेध नहीं किया है। भले विचार करने पर तात्त्विक न लगे फिर भी कल्पना से व्यक्तिओं में ही अतात्त्विक शब्दवाच्यत्व प्रसिद्ध है। इसलिये व्यक्ति में अपोह्यत्व के अभाव की सिद्धि के लिये बनाया गया 'शब्द-अवाच्यता' हेतु असिद्ध ठहरा । यदि कहें कि - "हम 'पारमार्थिक अवाच्यता' को हेतु करते हैं इस लिये वह असिद्ध नहीं ठहरेगा" - तो यहाँ सिद्धसाध्यता दोष होगा क्योंकि व्यक्तिओं में पारमार्थिक अपोह्यता का अभाव तो हमें इष्ट ही है । (काल्पनिक अपोह्यता का तो इस से निषेध नहीं हो जाता ।)
___ तथा यह जो कहा कि - 'व्यक्ति अपोह्य न मान सकने के कारण जाति ही अपोह्य ठहरेगी और उस में वस्तुता प्रसक्त होगी' - वहाँ भी अपोह्यत्व हेतु असिद्ध है या तो साध्यद्रोही है । व्यक्ति में काल्पनिक अपोह्यत्व मान लेने से, जाति में वस्तुतासाधक अपोह्यत्व हेतु असिद्ध बनेगा । तथा हेतु साध्यद्रोही भी सिद्ध होगा क्योंकि 'वस्तुता न रहे वहाँ अपोह्यत्व रहे' ऐसी साध्यशून्य में हेतु की कल्पना करने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है ।
★ अभाव में अपोह्यत्व का उपपादन★ यह जो कहा था - 'अभावों में अपोह्यता संभव नहीं, अभाव का यदि अपोह (निषेध) मानेंगे तो अभाव की अभावरूपता का त्याग हो जायेगा' - इस के सामने यह बात है कि 'अभाव अभाव नहीं है। इस ढंग से हम अभाव का अपोह नहीं दिखलाते हैं जिस से कि अभाव की अभावरूपता का त्याग प्रसक्त हो ! किन्तु जब 'भाव विधिरूप होने से अभावरूप के त्याग (निषेध) से अवस्थित है। ऐसा कहा जाता है तब 'अभावरूप के त्याग' इन शब्दों से अर्थत: (भाव में) अभाव का अपोह सिद्ध हो ही जाता है । यही बात 'यो नाम न यदात्मा'... इस श्लोक से कही गयी है । जो जिस स्वरूप नहीं होता वह उस का अपोह (यानी भाव अभाव का अपोहरूप) कहा जाता है । 'भाव अभावरूप नहीं है। इस प्रकार 'तदपोहे' यानी अभाव के अपोह करने पर अपोह में वस्तुत्व प्रसक्त होने की कोई आपत्ति नहीं है ।
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