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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् _अथ व्यतिरिक्तमेव विशेषणं लोके प्रसिद्धम् यथा दण्डः पुरुषस्य, व्यावृत्तिश्चाव्यतिरिक्ता वस्तुनः तत् कथमसौ तस्य विशेषणम् ? असदेतत्, न हि परमार्थेन किञ्चित् कस्यचिद् विशेषणम् अनुपकारकस्य विशेषणत्वाऽयोगात्, उपकारकत्वे चाङ्गीक्रियमाणे कार्यकाले कारणस्यानवस्थानाद् अयुगपत्कालभाविनोविशेषण-विशेष्यभावोऽनुपपन्नः, युगपत्कालभावित्वेऽपि तदानीं सर्वात्मना परिनिष्पत्तेर्न परस्परमुपकारोऽस्तीति न युक्तो विशेषण-विशेष्यभाव इति सर्वभावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेरयःशलाकाकल्पवात् कल्पनयामीषां मिश्रीकरणम् । अतः परमार्थतो यद्यपि व्यावृत्ति-तद्वतोरभेदस्तथापि कल्पनारचितं भेदमाश्रित्य विशेषण-विशेष्यभावोऽपि भविष्यति ।
यच्चोक्तम् - 'यदा वाऽशब्दवाच्यत्वान व्यक्तीनामपोहता' (५८-१०) इत्यादि' तत्र 'व्यक्तीनामवाच्यत्वात्' (५८-१०) इत्यसिद्धम् । तथाहि - यद् व्यक्तीनामवाच्यत्वमस्माभिर्वर्णितं तत् परमार्थचिन्तायाम् न पुनः संवृत्यापि, तया तु व्यक्तीनामेव वाच्यत्वमविचारितरमणीयतया प्रसिद्धमिति कथं नासिद्धो हेतुः ? अथ पारमार्थिकमवाच्यत्वं हेतुत्वेनोपादीयते तदाऽपोह्यत्वमपि परमार्थतो व्यक्तीनां नेष्टमिति सिद्धसाध्यता ।। 'अन्यत्व' यह अन्य वस्तु से भिन्न नहीं होता, यदि उस को भिन्न मानेंगे तो एक घटादि वस्तु अन्य पटादि से भिन्न सिद्ध न हो सकेगी क्योंकि घटादिगत पटादि से भेद तो घटादिस्वभाव न हो कर उस से अन्य मानना है ! निष्कर्ष, अन्यव्यावृत्तिरूप विशेषण होने पर भी विशेष्य के लिये वस्तुतत्त्वावगाहि बुद्धि हो सकती है, क्योंकि अन्यव्यावृत्ति तद्वस्तुस्वरूप ही होती है।
प्रश्न : लोक में विशेषण तो विशेष्य से भिन्न ही होने का प्रसिद्ध है । उदा० दण्डरूप विशेषण पुरुषात्मक विशेष्य से भिन्न होता है । अन्यव्यावृत्ति विशेष्यवस्तु से जब अभिन्न है तो वह उस का विशेषण कैसे बन सकेगी ?
उत्तर : आप का प्रश्न ही गलत है । वास्तविक रूप से देखा जाय तो कोई किसी का विशेषण ही नहीं होता - इस की उपपत्ति दो प्रकार से है - १. जो किसी वस्तु का उपकारक नहीं होता वह उस वस्तु का विशेषण नहीं बन सकता । २. विशेषण मानने के लिये उस को उपकारक मानेंगे तो वह कारण बन जाने से (क्षणिकवाद में) उपकार्य वस्तुक्षण में नहीं रह सकेगा, फलत: विशेषण नहीं बन सकता, क्योंकि जो समानकालीन नहीं होते उन में विशेषण-विशेष्यभाव घट नहीं सकता । यदि कारण को कार्यसमानकालीन मान कर विशेषण-विशेष्यभाव घटाना चाहेंगे तो वह भी असम्भव है क्योंकि कार्यक्षण में कार्य पूर्णरूप से निष्पन्न हो चुका है इसलिये उस क्षण में कारण का कोई उपकार न होने से वह उस का विशेषण नहीं बन सकेगा । मतलब, विशेषण-विशेष्यभाव ही अयुक्त है क्योंकि प्रत्येक भाव अपने स्वभाव में अवस्थित होते है । हाँ, पृथग् पृथग् लोहशलाकाओं का जैसे मिश्रण किया जाता है वैसे ही व्यवहार के लिये कल्पना से विशेषण और विशेष्य का मिश्रण किया जाता है । फलितार्थ यह हुआ कि व्यावृत्ति और व्यावृत्तिवान् में परमार्थ से भेद नहीं होता फिर भी काल्पनिक भेद को लेकर उनमें विशेषण-विशेष्यभाव की कल्पना हो सकती है।
★ व्यक्तिओं में अपोह्यत्व का समर्थन ★ यह जो पहले कहा था (पृ० ५८-३१) "व्यक्ति शब्दवाच्य न होने से अपोह्य नहीं हो सकती तब जाति को ही अपोह्य मानना होगा और अपोह्य होने से जाति को वास्तविक भी मानना पडेगा..' इत्यादि - इस
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