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________________ १०४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'किमुत्पलम् आहोस्विद् अञ्जनम्' इत्येवमज्ञानं विशेषान्तरे न प्राप्नोति, सर्वात्मना तस्य वस्तुनः प्रतिपादितत्वात् । एकस्यैकदैकप्रतिपत्रपेक्षया ज्ञाताऽज्ञातत्वविरोधान्न धर्मान्तरे संशयविपर्यासावित्युत्पलादिशब्दान्तप्रयोगाकाङ्क्षा प्रयोक्नुरपि न प्राप्नोति - यदर्थमुत्पलादिशब्दोच्चारणम् - तस्य नीलशब्देनैव कृतत्वात् । अथापि स्यात् तद् वस्त्वेकदेशेनाभिहितं नीलशब्देन न सर्वात्मना, तेन स्वभावान्तराभिधानायापरः शब्दोऽन्वेष्यते । असदेतत्, न ह्येकस्य वस्तुनो देशाः सन्ति येनैकदेशेनाभिधानं स्यात् एकत्वानेकत्वयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात्, इति यावन्तस्त एकदेशास्तावन्त्येव भवता वस्तूनि प्रतिपादितानीति नैकमने सिद्धयेत् । ___ स्यादेतत् - न नीलशब्देन द्रव्यमभिधीयते, किं तर्हि ? नीलाख्यो गुणः तत्समवेता वा नीलत्वजातिः । उत्पलशब्देनाप्युत्पलजातिरेवोच्यते न द्रव्यम् । तेन भिन्नार्थाभिधानादुत्पलादिशब्दान्तराकांक्षा युज्यत एव । नन्वेवं परस्परभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेन नितरां नीलोत्पलशब्दयोर्न सामानाधिकरण्यम् बकुलोत्पलशब्दयोरिवैकस्मिन्नर्थे वृत्त्यभावात् । अथ नीलशब्दो यद्यपि गुणविशेषवचनस्तथापि तद्द्वारेण क्या मालुम ?' इस प्रकार अज्ञान शेष न रह पायेगा, क्योंकि वह नील अगर कमल हो तो उसका उस रूप से, और कज्जल हो तो उस रूप से यानी सर्वात्मना विधिरूप से प्रतिपादन हो जायेगा । यदि ऐसा कहें कि नीलादिशब्द से सर्वात्मना नीलस्वलक्षण ज्ञात नहीं होता इस लिये कमल या कज्जल के बारे में अज्ञान शेष रह सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक ज्ञाता को एक काल में एक ही स्वलक्षण में एक धर्म की ज्ञातता और अन्यधर्म की अज्ञातता इन दो धर्मों का समावेश विरुद्ध होने से, अन्य धर्म के बारे में संशय या भ्रम की सम्भावना ही नहीं रहती । अत: प्रयोक्ता को कमलादि शब्दान्तर के प्रयोग करने की कांक्षा भी होने का सम्भव नहीं है । कारण, जिस के लिये 'कमल' आदि शब्द का प्रयोग करना है वह तो नीलशब्द से ही प्रतिपादित हो चुका है। यदि कहें कि - "नीलादिशब्द से वस्तु का एक अंश में ही प्रतिपादन होता है न कि सर्वांश में । अत: अनुक्त अन्यस्वभाव का निरूपण करने के लिये 'कमल' आदि अन्य शब्द का प्रयोग अपेक्षित होता है।" - तो यह गलत बात है, क्योंकि वस्तु को जब आप 'एक' मानेंगे तब उस एक वस्तु के अनेक अंश सम्भव नहीं है जिस से कि यह माना जा सके कि एक अंश का निरूपण होता है..इत्यादि । कारण, एकत्व और अनेकत्व में एक-दूसरे को छोड कर रहना' इस ढंग का विरोध होता है, इसलिये एक वस्तुमें अनेक अंश की बात शक्य नहीं है। अगर आप कहते हैं तो इस का मतलब आप जितने अंश मानते हैं उतनी वस्तु का यानी अनेक वस्तु का ही निरूपण कर रहे हैं ऐसा सिद्ध होगा । फलत: एक वस्तु में अनेकता की सिद्धि नहीं होगी । निष्कर्ष, नील शब्द से पूरे स्वलक्षणरूप एक वस्तु का निरूपण हो जाने से 'कमल' शब्द निरर्थक ठहरने से सामानाधिकरण्य या विशेषण-विशेष्यभाव गगनपुष्प जैसा हो जायेगा । नीलत्व या नीलवर्ण की वाच्यता पर आक्षेप ★ सामान्यवादी : द्रव्य को हम नीलशब्द का वाच्यार्थ नहीं मानते हैं । 'तो किस को मानते हैं ?' नीलवर्णात्मक गुण को या नीलत्व जाति को नीलशब्दवाच्य मानते हैं । अब तो कमलादिभिन्न अर्थ का ही नीलशब्द से निरूपण होगा, अत: कमलादि के निरूपण के लिये 'कमल' आदि शब्द की आकांक्षा होना उचित है। ___ अपोहवादी : अरे, ऐसा मानेंगे तो परस्पर भिन्न अर्थों का ही निरूपण करने के कारण 'नील' और 'कमल' शब्द में तनिक भी सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं होगा, क्योंकि 'बकुल' और 'कमल' शब्दों में जैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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