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________________ परिवार वालों की बात सुनकर प्रभु ने उत्तर दिया- "ठीक है, मैं आपकी आज्ञा को दो वर्ष के लिए शिरोधार्य हूँ । उसके बाद मैं स्वतन्त्र होऊँगा । आप वायदा कीजिये कि मुझे रोकेंगे नहीं ।" इस तरह दो वर्ष का समय शुरू हुआ। वह घर में संन्यासी बन गये । शास्त्र कहते हैं- "वह विरक्तभाव से घर में रहते थे। वे सचित्त जल से स्नान नहीं करते थे। हाथ-पैरों का प्रक्षालन भी अचित्त जल से करते थे। आचमन भी उसी काले थे। इस अवधि में अप्रासुक आहार व रात्रि भोजन का उपयोग भी नहीं किया । २० ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन किया। महाव्रतों का पूर्ण पालन किया। भू-शयन किया। क्रोध आदि कषायों से रहित हो एकत्व भाव में लीन रहे । २१ चक्रवर्ती नहीं आचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने एक घटना के द्वारा लिखा है कि प्रभु महावीर के जन्म के समय चक्रवर्ती के सारे लक्षण थे। कई लोगों के मन में भ्रम पैदा हो गया कि हो न हो कुमार चक्रवर्ती न हो। इस दृष्टि से श्रेणिक, चण्डप्रद्योतन आदि राजाओं ने उनकी सेवा में अपने कुमार भेजे। पर प्रभु महावीर तो वीतरागता के प्रतीक थे । प्रभु की विरक्तता देखकर सबको विश्वास हो गया कि प्रभु महावीर चक्रवर्ती बनकर हमारा राज्य नहीं छीनेंगे। हमारे साथ सद्व्यवहार करेंगे। फिर धीरे-धीरे सेवा में रहने वाले सभी राजाओं ने देखा - "प्रभु तो निष्परिग्रही हैं । त्यागी आत्मा हैं । घर, परिवार के मोह से कोसों दूर हैं।” तो वे चल दिये। २२ उन्होंने अपने राजाओं को बताया - " सिद्धार्थ क्षत्रिय का पुत्र तो विरक्त आत्मा है, इसे संसार से कुछ लेना-देना नहीं। इस व्यक्ति से हमें कोई भय नहीं होना चाहिये । इस तरह सभी राजा भयमुक्त हो गये । लोकान्तिक देवों की प्रेरणा व वर्षीदान भगवान महावीर की दीक्षा व वर्षीदान का वर्णन कल्पसूत्र आचारांगसूत्र में आया है । कल्पसूत्र में आचार्य भद्रबाहु ने कितने सुन्दर शब्दों में कहा है " श्रमण भगवान महावीर दक्ष थे, दक्ष प्रतिज्ञ थे, असामान्य रूपवान थे, स्वात्मलीन थे, सरल स्वभावी थे, अनुपम कान्तिवान थे, अत्यन्त सुकुमार थे, सुप्रसिद्ध थे, ज्ञातवंश चन्द्रमा के समान थे, विदेह थे, विदेहदिन्ना ( त्रिशला - पुत्र) थे, विदेहजात्य थे । वे तीस वर्ष तक गृहस्थावास में रहे। पर वह निर्लेप कमल की तरह होकर विचरे। अपने माता-पिता के स्वर्गवास के बाद गर्भ में लिए संकल्प के पूर्ण हो जाने पर अपने से बड़े की अनुमति प्राप्त कर वे गृह-त्याग के लिए तैयार हुए। उस समय लोकान्तिक जीतकल्पी देवों ने परम्परानुसार कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन को छूने वाली, उदार, कल्याण, शिव और छन्द रूप, मंगलकारी, मृदु, मधुर, मंजुल, शोभाकारी, मन में उतर जाने वाली, चित्त को प्रसन्न करने वाली, गम्भीर और पुनरुक्ति रहित वाणी में बार-बार अभिनन्दन करते हुए भगवान की स्तुति की और कहा "हे नन्द! आपकी जय हो ! जय हो ! हे लोकनाथ ! हे भगवन् ! बोध प्राप्त करो। सारे संसार के सभी प्राणियों के हित के लिए धर्मतीर्थ प्रवर्तन करो, जो परम हित सुख निश्रेयस करने वाला होगा।" इसके बाद देवताओं ने जयघोष किया। यहाँ एक विभिन्नता कई आचार्यों में पाई जाती है-किसी ने पहले वर्षीदान लिखा है, किसी ने देवों के संबोधन के बाद। तीर्थंकर एक वर्ष दान देते हैं यह तीर्थंकर परम्परा का महत्त्वपूर्ण लोकोपकारी कार्य है। विशेषावश्यकभाष्य में दान का प्रसंग इस प्रकार है- " दान देने की प्रक्रिया प्रतिदिन पूर्वाह्न में दीक्षा से एक वर्ष तक चलती रही । प्रातः भोजन के समय दान देने आते, वह भी चौराहों पर, बाजारों में, गलियों में इस प्रकार की घोषणा होती कि जिनको जो माँगना है वह माँगे, जो माँगेगा उसे वह वस्तु मिलेगी । इस प्रकार प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान होता । २३ Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only ५५ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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