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महापुरुष तो महापुरुष होते हैं। पर महापुरुष क्रान्ति के अगुआ बने तो युगों तक उनका नाम रहता है। देखने वाली बात है कि जिन बातों के लिए महावीर ने साढ़े बारह वर्ष कठोर साधना की, वे सुधार तो राजकीय कानून द्वारा किये जा सकते थे। पर महावीर किसी की आत्मा व शरीर को मजबूर करने के खिलाफ थे ।
समवायांगसूत्र में इन तीर्थंकरों के बारे में बताया है कि वासुपूज्य, मल्ली, नेमि, पार्श्व और महावीर कुमारावस्था में दीक्षित हुए।
दिगम्बर परम्परा 'कुमार' का अर्थ 'कुँआरा' करती है और प्रभु को ब्रह्मचारी मानती है । पर श्वेताम्बर परम्परा में 'कुमार' का अर्थ है कुमार अवस्था अर्थात् जिन तीर्थंकरों ने राज्य शासन नहीं किया हो, वह कुमार है । १६
इसी तरह आचारांग एवं कल्पसूत्र में भगवान की पत्नी का नाम यशोदा स्पष्ट लिखा है । वहाँ उनके चाचा का नाम सुपार्श्व आया है वह भी श्रमणोपासक था । वह प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा का उपासक था। भगवान महावीर ने परिवार में रहकर संसार को करीब से देखा, परखा तभी वह महान् बने । वैसे भी तीर्थंकरत्व के रास्ते में विवाह कोई रुकावट नहीं है।
इस प्रकार के वातावरण में राजकुमार वर्धमान ने संसार को बड़े करीब से देखा। उन्हें घर में कोई कमी नहीं थी । माता-पिता उन्हें अथाह स्नेह करते थे ।
घटनाओं का क्रम चलता रहा । लगता है २८वें वर्ष से पहले उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया होगा। नहीं तो आचार्य उनका कहीं न कहीं वर्णन करते। इसलिए यशोदा का जीवन बीते कल की बात बन गया ।
आश्चर्य की बात कि आचार्य शीलांक ने यशोदा के साथ-साथ बहुत कन्याओं के साथ शादी का उल्लेख किया है । लगता है कि उन्होंने यशोदा के साथ आये दासी परिवार को भी शामिल कर लिया।
इसके साथ आचार्य शीलांक ने नंदीवर्द्धन को छोटे भ्राता के रूप में प्रस्तुत किया है, जो पहले किसी ग्रंथ में नहीं आया । नंदीवर्द्धन का उल्लेख भगवान के बड़े भ्राता के रूप में उपलब्ध है।
माता-पिता की मृत्यु
दिगम्बर ग्रन्थों में भ. महावीर की प्रतिज्ञा का कोई उल्लेख नहीं है तथा जब दीक्षा ली तब माता-पिता विद्यमान थे यह भी कहा है। किन्तु श्वेताम्बर ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि महावीर जब अठाईस वर्ष के हुए तब उनके माता-पिता ने अपना अंतिम समय निकट देखकर आत्मा की शुद्धि के लिए कृतपापों की आलोचना की, फिर संथारा संलषेणा करके समाधि भावपूर्वक शरीर त्यागा और अच्युतकलविमान से उत्पन्न हुए।
माता-पिता स्वर्गवासी हो जाने पर प्रभु ने सोचा- 'अब मेरी गर्भस्थ प्रतिज्ञा पूरी हो गई है। अब मुझे दीक्षा लेनी चाहिये।' उन्होंने अपनी बात अपने भ्राता नंदीवर्द्धन व चाचा सुपार्श्व के सम्मुख रखी । १७
अपने इस विचार से उन्होंने बड़े भ्राता नंदीवर्द्धन को अवगत कराया। उनके इस फैसले से नंदीवर्द्धन बहुत दुःखी हुए। उसने कहा-"अभी माता-पिता के वियोग के दुःख को हम विस्मृत ही नहीं कर पाये हैं और तुम प्रव्रज्या की बात करते हो। क्या यह कार्य इस समय घाव पर नमक छिड़कने के बराबर नहीं है ? अतः कुछ काल तक ठहरो, बाद में प्रव्रज्या ले लेना । तब तक हम शोक रहित हो जायेंगे ।"१८
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जब परिजनों की बात को प्रभु ने सुना, तो सोचा- 'यह लोग सचमुच दुःखी हैं। कुछ समय रुककर मुझे इन्हें धैर्य बँधना चाहिये।' इस बात को ध्यान में रखकर उन्होंने उत्तर दिया- "अच्छा, तो मुझे कब तक ठहरना होगा ?" परिजनों ने कहा--"कम से कम दो वर्ष, तब तक शोक शांत हो जायेगा । १९
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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