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पशु की बलि दे। खाने योग्य पदार्थ आग में 'स्वाहा' कहकर समाप्त कर दिया जाए। आज के मुकाबले तब कितना प्रदूषण रहा होगा। इसकी कल्पना असंभव है।
इसके अलावा उन्होंने समाज के निम्न कहे जाने वाले वर्ग की स्थिति को करीब से देखा होगा। शूद्र की स्थिति से वह अनभिज्ञ नहीं थे। उनकी बस्तियाँ शहर से बाहर थीं। उन्हें छोटे कार्य करने पर मजबूर किया जाता था।
अस्पृश्यता का रोग समाज में घर कर चुका था। शूद्र अस्पृश्य है। वह वेदमंत्र न सुन सकता है, न पढ़ सकता है। शूद्र के लिए सजाएँ अलग थीं। स्मृतियों में शूद्र के लिये अलग कानून व्यवस्था थी। जिन शास्त्रों में ब्राह्मणों ने इतनी असमानता भर रखी है उन्हें धर्मशास्त्रों का नाम दिया गया। उनमें ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा अनुसार संस्कार व सामाजिक-व्यवस्था का निर्माण किया था।
यह समय था जब पशुओं के साथ-साथ स्त्री जाति की अवस्था भी दयनीय थी। उन्होंने स्त्रियों की दुर्दशा देखी। उनकी मंडियाँ लगती देखीं। दासों की मंडियाँ उस समय के सभ्य समाज का अंग थीं। किसी की अमीरी में उसके दासों व स्त्रियों की गिनती होती थी। गुलामों की मंडियाँ भी लगती थीं।
स्त्रियों को किसी स्तर पर धर्म का अधिकारी नहीं समझा जाता था। वह धर्म के किसी अनुष्ठान में महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती थी। उस समय कोई पर्दा-प्रथा नहीं थी। इसके बावजूद स्त्रियों की दुर्दशा समाज के सभी वर्गों में एक-सी थी। उन्हें आत्म-कल्याण के मार्ग से वंचित कर दिया गया था।
जैनधर्म का प्राचीन रूप बिल्कुल बिखर चुका था। माँसाहार का धर्म के नाम पर प्रयोग करते थे। हिंसा के इस माहौल को बालक वर्धमान ने अपनी आँखों से देखा। उन्होंने स्त्रियों की दुर्दशा और समाज की उपेक्षा का गहन अध्ययन किया। एक बात देखने वाली है-महावीर ने अपनी जुवान बंद रखी। उन्होंने घर, परिवार में रहकर एक शब्द भी ब्राह्मण व वेद की हिंसा के विरुद्ध नहीं बोला। उपदेश देने से पहले वह अपने को कुछ बनाना चाहते थे। तपस्या की आग में तपकर आत्मा को कन्दन बनाने का उनका लक्ष्य था। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्हें अभिनिष्क्रमण का फैसला लेना था। हम देखते हैं कि प्रभु जोर-जबरदस्ती में विश्वास नहीं रखते थे। वह अहिंसा, शांति, करुणा के मार्ग पर चलकर ही अपनी बात समझाना चाहते थे। ऐसे समय में जबकि स्त्री को अर्धांगिनी कहकर भोग की सामग्री समझा जाता था। स्त्रियों का कोई संस्कार मंत्र से नहीं होता था। ब्राह्मण चारों वर्गों की स्त्री से शादी कर सकता था। क्षत्रिय, ब्राह्मण को छोड़ तीन वर्णों की स्त्री से शादी कर सकता था। वैश्य (बनिया) ऊपर दो को छोड़ दो वर्गों की स्त्री से शादी कर सकता था। बेचारा शूद्र तो एक शादी करता था। उसके लिए हर व्यवस्था तोड़ने की सजा थी। स्त्रियों व शूद्र को स्वतन्त्रता नहीं थी। तुलसीदास की भाषा में
"ढोल गँवार शूद्र पशु नारी,
यह सब ताड़न के अधिकारी।" शूद्र पशु व नारी से एक-सा व्यवहार होता था। उन्हें कोई भी धार्मिक व सामाजिक अधिकार नहीं था। वैदिककालीन अधिकार भी उस समय के ब्राह्मण ने क्षत्रियों से छीन लिये। अपनी महिमा मंडित करवाने के लिए यह आह्वान किया “पूजनीयो विप्रः शील गुण हीनो।"
शील गुणों से हीन ब्राह्मण जन्म से पूजनीय है। शूद्र पर जुल्मों की कहानियाँ इतिहास बन गई हैं। आज भी इतना समय जाने पर हम वह अधिकार मातृ समाज व शूद्रों को नहीं दे पाये, जिनसे ब्राह्मणों ने उन्हें इस कारण वंचित कर दिया था कि वह शूद्र हैं।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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