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इनमें प्रमुख उनकी आमलक - क्रीड़ा का वर्णन है। यह बात उस समय की है जब उनकी उम्र आठ वर्ष से कम थी। वह अपने गृह में स्थित उद्यान में खेल रहे थे । इस खेल में सभी बालक किसी एक वृक्ष को लक्ष्य करके दौड़ते हैं । जो बालक वृक्ष पर चढ़कर नीचे उतर जाता है वह विजयी कहलाता है। विजयी बालक पराजित बच्चों की पीठ पर चढ़कर उस स्थान पर जाता है जहाँ से दौड़ प्रारम्भ होती है।
एक दिन बालक वर्धमान यही क्रीड़ा कर रहे थे। एक द्वेषी देव साँप का रूप बनाकर प्रभु के बल पराक्रम की परीक्षा लेने आया । वह बच्चों को डराने लगा। बालक साँप के भय से भाग गये। पर किशोर वर्धमान ने उस साँप को बिना डरे, झिझके उठाया और दूसरे स्थान पर रख दिया । १४
भगवान महावीर के बचपन का जैनशास्त्रों में कम वर्णन आया है। इसका कारण यह है कि जैन शास्त्रकारों ने त्याग-प्रधान घटना को प्रमुख रखा है। सांसारिक घटनाओं पर उन्होंने ज्यादा बल नहीं दिया है।
तिंदूषक क्रीड़ा
इसी तरह से मिलती-जुलती घटना तिंदूषक क्रीड़ा की है। आमल क्रीड़ा वाले दिन ही यह घटना हुई। बालकों ने पुनः खेलना शुरू किया। द्वेषी देव अब बालक के रूप में बच्चों के साथ मिल गया ।
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इस खेल में किसी वृक्ष को लक्ष्य रखकर सभी बालक दौड़ते हैं। जो वृक्ष को प्रथम छू लेता, वह विजयी बालक सभी हारने वालों के कंधे पर बैठता है । देव बच्चों के साथ खेल रहा था । वह जानबूझकर हार गया। उसे तो प्रभु के बल - पराक्रम की परीक्षा लेनी थी। यह देव इन्द्र द्वारा प्रभु की प्रशंसा सहन न कर सका था। उसका मानना था--देव-बल के सामने मनुष्य का बल तुच्छ है।
हारे देव ने बालक वर्धमान को अपने कंधे पर बिठाया। देव बना बालक चलने लगा। कुछ ही समय के बाद बालक बना देव विकराल रूप में प्रकट हुआ । उसने भयंकर पिशाच का रूप बनाया। प्रभु वर्धमान उसकी विकरालता देखने से न डरे न घबराये पल्कि अकंप, अडोल रहे।
प्रभु ने उसके कंधे पर एक मुक्का मारा। मुक्का लगते ही देव अपनी असल स्थिति में आ गया। उसने अपनी करनी की क्षमा माँगी। फिर प्रभु की इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को सच्चा मानते हुए उसने कहा- "प्रभु ! प्रथम आप मेरा वन्दन स्वीकार करें। मेरी भूल को क्षमा करें। इन्द्र ने आपकी जितनी प्रशंसा की थी आप तो उससे ज्यादा वीर व धीर हैं।" देव स्तुति कर अपने स्थान पर चला गया।
हाथी को वश में करना
इसी प्रकार की एक घटना दिगम्बर जैन ग्रंथों में भी उपलब्ध है। जब प्रभु भर यौवन में थे । एक हाथी राज्य में बिगड़ गया। सारे राज्य में आतंक मचा दिया। राजा व सेना में भगदड़ मच गई। किसी महावत के काबू नहीं आ रहा था।
तभी प्रभु महावीर वर्धमान रास्ते से गुजर रहे थे। उन्हें सामने देखकर हाथी शांत हो गया। प्रभु ने उस पर प्यार से हाथ फेरा फिर उसे महावत को सुपुर्द कर दिया। भगवान महावीर का प्रारम्भिक जीवन शोधपूर्ण था । वह हर बात को अनेकों दृष्टिकोण से परखते हैं। सारे जीवन उन्होंने कप्रगृह नहीं किया।
पाठशाला में
जब बालक शिक्षा के योग्य होता है तो अभिभावकों को शिक्षा की चिंता लगना स्वाभाविक है। उनकी आयु कुछ बढ़ी। पिता सिद्धार्थ ने उन्हें आठ वर्ष की आयु में पाठशाला भेजा।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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