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________________ भगवान महावीर का जन्म होते ही शक्रेन्द्र का सिंहासन कम्पित हुआ । उसने अवधिज्ञान से देखा - "भगवान महावीर का जन्म हो गया है। वह बहुत प्रसन्न हुआ। वह अनेक देव-देवियों के परिवार के साथ क्षत्रियकुण्ड ग्राम में आया। उसके साथ भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक देव उनके इन्द्र और देवगण भी आये। सब देवों में होड़ लग गई। सर्वप्रथम शक्रेन्द्र ने भगवान को और माता त्रिशला को तीन बार प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया । महावीर का एक प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रखा। अवस्वपिनी निद्रा में माता को सुलाकर महावीर को मेरु पर्वत के शिखर पर ले गये। इसी तरह से मिलता-जुलता वर्णन आचारांगसूत्र में भी उपलब्ध होता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी के कल्पसूत्र व उसकी टीकाओं में इस घटना का सुन्दर उल्लेख हुआ है। जब सभी देव-देवियाँ अपने विमानों सहित इकट्ठे होने लगे, स्वर्ग में घण्टे बजने लगे, अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने जन्म ले लिया है, ऐसी घोषणाएँ होने लगीं। सभी देव - देवी अपने विमानों में इकट्ठे होकर भगवान महावीर का जन्म महोत्सव मनाने लगे। इस प्रकार ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व चैत्र सुदी त्रयोदशी को प्रभु का जन्म रानी त्रिशला व पिता राजा सिद्धार्थ के यहाँ हुआ । देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं । देवता इसी जोश में भगवान महावीर को मेरु पर्वत पर ले आये। अब उनका प्रथम स्नान देवी-देवताओं द्वारा भिन्न-भिन्न द्रव्यों से होना था । मेरु कम्पन इन्द्र ने अपने पाँच रूप बनाये । इन्द्राणी ने बालक गोद में ग्रहण किया। देवताओं के मन में शंका पैदा हुई कि कुछ ही घड़ी पहले जन्मा बालक, इस जल-स्नान के कलशों को कैसे झेलेगा ? परन्तु प्रभु तो अवधिज्ञानी थे । अवधिज्ञान के बल पर उन्होंने इन्द्र को चमत्कार दिखाया । चमत्कार तो चमत्कार होता है। तीन काल में कभी कितने भूचाल आये, मेरु पर्वत किसी स्थिति में नहीं काँपता । पर आज मेरु पर्वत का सौभाग्य था । इन्द्र की शंका को दूर करने के लिए प्रभु ने पाँव का छोटा अँगूठा मेरु पर्वत को लगाया। सारा मेरु पर्वत प्रभु की शक्ति के आगे काँपने लगा। माल पाँव के अँगूठे के स्पर्श से यह सब हुआ। सभी देवों को अपनी भूल का ज्ञान हुआ । इन्द्र ने जब अपने अवधिज्ञान से देखा तो उसने जाना कि यह जिनेश्वर देव के अनन्त सामर्थ्य का परिणाम है । इन्द्र व सभी देवताओं ने अपनी भूल महसूस की। इस घटना के बारे में कल्पसूत्र, चउपन्नमहापुरिसचरियं, महावीरचरियं, दिगम्बर पउमचरियं में विस्तार से आया है। दिगम्बर ग्रन्थों में वर्णित है कि तीर्थंकर जब बालक रूप में होता है, तब बालक के अँगूठे में अमृत का लेप होता है। इस प्रकार देवी-देवता प्रभु के जन्म- महोत्सव पर नाचते हैं और फिर सभी कार्यक्रम सम्पन्न होने पर बच्चे को राजा सिद्धार्थ के महलों में पहुँचा आते हैं। सिद्धार्थ राजा द्वारा जन्म महोत्सव राजा सिद्धार्थ को प्रभु के जन्म की सूचना प्रातःकाल मिलती है। सूचना देने वाली दासी प्रियंवदा थी। राजा सिद्धार्थ इस सूचना से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे अपने मुकुट को छोड़ सभी गहने बधाई में दे दिये। यही नहीं, उसे दासता से मुक्त भी कर दिया । विपुल धन दिया ताकि वह बाकी की जिन्दगी आराम से गुजार सके । ९ फिर आरक्षकों को बुलाकर आज्ञा दी - "कारागृह में सभी बन्दी मुक्त कर दो। सरकारी कर्जे समाप्त कर दो। किसी को किसी का कर्जा देना हो, तो उससे कहो कि उसका सारा ऋण राजा चुकायेगा, वह ऋण लेने न जाये ।" "बाजार में व्यापारियों से कहो कि हर जरूरतमंद को वस्तु निःशुल्क दो, उसके पैसे राजदरबार से प्राप्त करो। " "जो वस्तुएँ माप-तोल पर दी जाती हैं उसमें आज से वृद्धि कर दो।" सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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