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भगवान महावीरकालीन परिस्थितियाँ
आज से २६०० वर्ष पूर्व के भारतीय इतिहास को कोई विद्वान् देखता है, तो हैरान हो जाता है कि भारतीय धर्म, समाज व संस्कृति इतने पतन के गड्ढे में गिर चुकी थी कि अनुमान लगाना कठिन है। शायद जिस कलियुग की बात हमारे हिन्दू पुराणों में है, उससे भी भयंकर स्थिति उस समाज की थी। उस सभ्यता को हम वैदिक सभ्यता कह सकते हैं, क्योंकि उसका आधार वेद थे। यह ब्राह्मण संस्कृति थी, क्योंकि उस समय वेद व ब्राह्मण समाज के हर क्षेत्र पर छाये हुए थे। उस समय के लोग उपनिषदों की क्रान्ति को पूर्णतः भूल चुके थे, जिन कार्यों का विरोध उपनिषदों ने किया था उसकी बात सुनने वाला, प्रचार करने वाला कोई महापुरुष नहीं था।
उपनिषदों की रचना २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के समय शुरू हुई थी। इसी कारण उपनिषदों पर भगवान पार्श्वनाथ की अहिंसा की मान्यता स्पष्ट दिखती है। आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म के बारे में नये विचार जन्म ले चुके थे।
हमें इन बातों की चर्चा करने से पहले उस युग के इतिहास से गुजरना पड़ेगा। सर्वप्रथम धार्मिक क्षेत्र को लें, तो सूत्रकृतांगसूत्र में ३६३ और बौद्ध ग्रन्थों में ६३ मतों का विवरण उपलब्ध होता है। ये सभी मत अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग की तरह एकान्तवादी थे। भगवान महावीर के समय में आस्तिकमत के साथ नास्तिक-चार्वाक, सांख्यमत भी घूम रहे थे। यहाँ हम उन मतों का वर्णन करेंगे जो आज या तो समाप्त हो गये हैं या वैदिक परम्परा के भाग बन गये हैं। उस समय तीर्थंकर पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा भी छिन्न-भिन्न हो गई थी। उनके कुछ ही अच्छे संत-साध्वी बचे थे।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने 'महावीर : एक अनुशीलन' पुस्तक में उस युग का सुन्दर विवेचन पृष्ठ २०६ में किया है-वह लिखते हैं
"वैदिक दृष्टि से भी वह युग विचित्र परिस्थितियों में से गुजर रहा था। दार्शनिक चिन्तन का स्थान अन्धकार ने ले लिया था। धर्म-सम्प्रदायों की स्थिति बड़ी भ्रान्त थी। कटी हुई पतंग की तरह धर्म-जिज्ञासु मानव मन भटका हुआ था। चार्वाक के अनुयायी भौतिकता की पराकाष्ठा को जीवन का अन्तिम छोर मानते थे। कोई अक्रियावाद को मानता था। किसी का आघोष था कि अकर्मण्यता ही धर्म है, कोई क्षणिकवाद में धर्म मानकर मिथ्यावाद का खण्डन करता था, कोई मिथ्यावाद का समर्थन कर क्षणिकवाद का उपहास करता था। कोई नियतिवाद का समर्थन करता था, तो कोई उच्छेदवाद का, कोई अन्योन्यवाद को महत्त्व देता था तो कोई विक्षेपवाद को। सभी अपने वैचारिक कटघरे में आबद्ध थे। स्वर्ग व नरक बिक रहे थे। अव्यवस्था, मनमानी औद्धत्य और स्वेच्छाचार ने धर्म की पवित्रता, दर्शन की दिव्यता को खण्डित कर दिया था। इस प्रकार धर्म और दर्शन की अराजकता फैली हुई थी।"
समाज में जाति-भेद, छुआछूत हर स्तर पर छूत के रोग की तरह फैल चुका था। ब्राह्मण संस्कृति की मनमानियों के कारण क्षत्रिय राजाओं का उनकी आज्ञा को धर्म मानकर चलना था। लम्बे-लम्बे समय के यज्ञ होते थे। यज्ञ में अन्य सामग्री के साथ धन, उपयोगी पशुओं व मानवों की बलियाँ दी जाती थी। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण-व्यवस्था पर समाज आधारित था।
उस समय यह श्रुति आम थी-“भगवान ने यज्ञ के लिए पशुओं की रचना की है। वेद में वर्णित हिंसा, हिंसा नहीं। ये सब कार्य देवताओं को प्रसन्न करने व स्वर्ग-प्राप्ति के लिए किए जाते थे।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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