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इन्द्र द्वारा प्रभु की वन्दना ___कल्पसूत्र के अनुसार जब इन्द्र को भगवान महावीर के देवानन्दा की कुक्षि में आगमन की सूचना मिली। उन्होंने अवधिज्ञान से देखा कि चरम तीर्थंकर का जन्म हो चुका है। उसको अभूतपूर्व प्रसन्नता हुई। वह अपने सिंहासन से नीचे उतरे। अपने भिन्न-भिन्न रत्नों द्वारा जड़ित पादुका उतारी। फर्श पर बैठे। दुपट्टे को कंधे पर डालकर हथेलियों की अंजली बाँधकर वह इन्द्रदेव सात-आठ कदम आगे बढ़े। बायें घुटने को ऊँचा कर दाहिने घुटने को धरती पर टिकाकर तीन बार मस्तक से लगाया। फिर सीधे बैठ गए। तब दोनों हाथों को इस प्रकार समेटा कि कड़े और पहुँचे आदि आभूषण स्थिर व ध्वनिरहित हो गये। दसों नाखून परस्पर जुड़ गये। इस प्रकार दोनों हथेलियों को मिलाया। करबद्ध होकर उन हाथों को मस्तक से लगाकर भगवान की इस प्रकार स्तुति की--
"नमस्कार हो उन्हें जो अरिहंत हैं, भगवंत हैं, आदिपुरुष हैं, तीर्थंकर हैं, स्वयंबुद्ध हैं, पुरुषोत्तम हैं, पुरुषसिंह हैं, पुरुषों में कमल की तरह हैं, पुरुषों में गंधहस्ति की तरह श्रेष्ठ हैं।"
"नमस्कार हो उन्हें जो तीन लोकों में उत्तम हैं, लोकनायक हैं, लोकहितकारी हैं, लोकदीपक हैं, लोकप्रकाशक हैं, संसार के जीवों को अभयदान देने वाले हैं, ज्ञाननेत्र देने वाले हैं, मार्गदर्शक हैं, शरणदायक हैं, जीवनदायक हैं, बोध देने वाले हैं, धर्म देने वाले हैं, धर्म की देशना देने वाले हैं, धर्मनायक हैं, धर्मसारथी हैं।" ___ “नमस्कार हो उन्हें जो चार घातिया कर्मों के संहारक धर्म चक्रवर्ती हैं, भव समुद्र में होप के समान हैं, प्राणदायक हैं, शरणदायक हैं, अवबोध और अवलम्ब देने वाले हैं, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान व दर्शन के धारक हैं, छद्मावस्था से रहित हैं, जिन हैं, जिननायक हैं, पार उतर चुके हैं, तारक हैं, बुद्ध हैं, बोधदाता हैं, मुक्त हैं, मुक्तिदाता हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, शिवरूप हैं, अचल हैं, रोगरहित हैं, अनन्त हैं, अक्षय हैं, अपुनरावृत्तिरूप सिद्धगति नाम स्थान पर पहुँचे हुए हैं, अव्याबाध हैं। ऐसे जिनों को मेरा नमस्कार हो।'
पूर्व में हुए तीर्थकरों द्वारा कथित और पूर्व वर्णित सभी गुणों के धारक, सिद्धगति को प्राप्त करने की अभिलाषा करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर को मेरा नमस्कार है। 'यहाँ स्वर्ग में बैठा हुआ मैं देवानन्दा की कोख में पल रहे भगवान को वन्दन करता हूँ। प्रभु मेरा वन्दन स्वीकार करें' यह कहकर इन्द्र प्रभु को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं और तब अपने सिंहासन के पूर्व की ओर मुख करके बैठते हैं।"
शक्रेन्द्र द्वारा की गई स्तुति में तीर्थंकर के बारे में जैनधर्म-दर्शन की मान्यता व श्रद्धा तो व्यक्त होती ही है साथ में शक्रेन्द्र ने यह भविष्यवाणी भी की कि प्रभु महावीर पूर्व में हुए तीर्थंकरों के धर्म को बढ़ाने के लिए पैदा हुए हैं। जिन तीर्थंकरों के धर्म को जनता भूल चुकी थी। __ धर्म के नाम पर बेजुबान पशुओं की गर्दन पर आरे चलते थे। नरमेध, अश्वमेध आदि यज्ञों में हजारों पशुओं की बलियों का विधान था। इस व्यवस्था में पशुधन धर्म के नाम पर समाप्त हो रहा था। यह व्यवस्था मनुस्मृति, दूसरे धर्मशास्त्र, बाल्मीकि रामायण में देखी जा सकती है।
शक्रेन्द्र ने इस अज्ञान को मिटाने वाले जीव को नमस्कार किया है। प्रभु महावीर का जीवन क्रान्तिकारी जीवन था, ऐसा जीवन संसार में कम उपलब्ध है। यह क्रान्ति अहिंसा द्वारा समाज-व्यवस्था बदलने की थी, इसीलिए वह महावीर कहलाये।
१. (क) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ७१
(ख) प्राकृत साहित्य का इतिहास २. भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृष्ठ १६८ (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.) ३. आवश्यक नियुक्ति
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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