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सत्ताईसवाँ भव - ऋषभदत्त ब्राह्मण के पुत्र रूप में
प्रायः लोग इसे भव नहीं गिनते । दिगम्बर परम्परा तो इसे मानती ही नहीं है ।
नयसार से महावीर तक की यात्रा पूर्ण हो चुकी थी । श्वेताम्बर आगमों में इस बात का कई स्थलों पर स्पष्ट वर्णन उपलब्ध होता है। आचारांग, भगवती, कल्पसूत्र, मथुरा की प्राचीन मूर्तियों में इस भव का वर्णन है। बाद में हुए हरचारित्र लेखक ने इसका वर्णन किया है। श्वेताम्बर परम्परा में यह घटना अच्छेरा (अचम्भा) मानी जाती है। हम कल्पसूत्र आधार पर इसका वर्णन करेंगे।
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भगवान महावीर का जीव ग्रीष्म ऋतु के चतुर्थ मास, अष्टम पक्ष, आषाढ़ षष्ठी के दिन हस्तोत्तर नक्षत्र का योग आ प्राण देवलोक के दसवें स्वर्ग के पुष्पत्रोत्तर प्रवर पुण्डरिक महाविमान से बीस सागर की आयु पूर्ण कर च्युत
हुआ ।
उसका जन्म जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में स्थित ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में प्रमुख वैदिक शास्त्रों के ज्ञाता कर्मकाण्डी कोडाल गोत्रीय ब्राह्मण ऋषभदेव व जालंधर गोत्रीय ब्राह्मणी देवानन्दा के यहाँ हुआ। प्रभु के अवतरण से पूर्व देवानन्दा तीर्थंकर योग्य १६ स्वप्न या १४ स्वप्न देखे। यह जीव गर्भ में तीन ज्ञान का धारक था ।
पिता ने स्वप्न के आधार पर बच्चे की भविष्यवाणी की - "बालक सुन्दर होगा। बड़ा होकर वेद, इतिहास, निघण्टु, गणितशास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, ब्राह्मण ग्रन्थ, परिव्राजक शास्त्रों में पारगंत होगा ।"
स्वप्न का फल सुन माता प्रसन्नता से उछल उठी । पर देवानन्दा का यह सुख क्षण-भंगुर था । जब देवराज इन्द्र को यह सूचना मिली कि तीर्थंकर का जीव ब्राह्मणी देवानन्दा के यहाँ पल रहा है तो देव शक्रेन्द्र सोचने लगा
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि शूद्र, अधम, तुच्छ, अल्प कौटुम्बिक, निर्धन, कृपण, भिक्षु या ब्राह्मण में उत्पन्न नहीं होते । वे तो राजन्य कुल में ज्ञात क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, हरिवंश में अवतरित होते हैं ।
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शक्रेन्द्र ने हरिणैगमेषी देव को बुलाया । गर्भ - परिवर्तन का आदेश दिया। यह सब क्यों घटित हुआ ? एक छोटे से अभिमान के कारण कर्मबन्ध का फल था, तो नयसार के जीव ने राजकुमार मारीचि के भव में बाँधा था। कर्मफल से न भगवान (महावीर) बच सकता है और न कोई जीव । इसी अहं के कारण उस जीव को ८२ रात्रि ब्राह्मणी के गर्भ में रहना पड़ा। हरिणैगमेषी देव ने दोनों माताओं को ८३वीं रात्रि में अवसर्पिणी निद्रा दी । गर्भ-परिवर्तन कर दिया।
तीर्थंकर महावीर का जीव क्षत्रियकुण्ड के नरेश राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ में स्थापित कर दिया गया। त्रिशला का गर्भ देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में स्थापित कर दिया गया। गर्भ के समय प्रभु तीन ज्ञान के धारक होने के कारण यह जानते थे ।
आचार्य भद्रबाहु ने कल्पसूत में इस घटना का उल्लेख किया है - "संहरण से पूर्व यह होने वाला है, उन्हें ज्ञात था किन्तु ऐसा हो रहा है इस बात को वह नहीं जानते थे । संहरण के पश्चात् भी उन्हें ज्ञात था कि ऐसा हो चुका है, संहरण हो रहा है यह उन्हें ज्ञात नहीं था । पर दोनों माताओं को या किसी अन्य प्राणियों को इस घटना का पता नहीं था, क्योंकि देवों ने यह कार्य बहुत ही सूक्ष्म समय में कर डाला।"
इस प्रकार नयसार के जीव को महावीर बनने में जन्म से पूर्व कई जन्मों में कितना संघर्ष करना पड़ा, इन भवों की कहानी इसी ओर संकेत करती है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि जैन परम्परा ने कहीं भी महावीर को न अवतार माना है, न स्वर्ग से सीधा आया निष्कलंक जीव । उनको भी स्वयं कर्मफल भोगना पड़ा, वह भी तीर्थंकर के भव में। जैन इतिहास में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई थी । सो इस घटना को आश्चर्यजनक माना गया। जैनदर्शन की एक बात ध्यान देने योग्य है कि कर्मफल में भगवान व इन्सान एक स्तर पर है। हम आगे देखेंगे कि कर्म के फल नहीं बच सका है।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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