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________________ व का जीव आयष्य पर्ण कर सातव तमस्तमा नरप त्रिपृष्ट को संगीत बहुत पसंद था। एक शाम उसके यह संगीतकार गाना गा रहे थे। संगीत मधुर था। त्रिपृष्ट के कानों को संगीत अच्छा लगा। उसने अपने सेवकों से कहा- "जब मैं सो जाऊँ, संगीत बन्द करवा देना।" शय्यापालक ने आज्ञा को ग्रहण किया। कुछ समय के बाद सम्राट् की आँख लग गई। सम्राट के सेवक संगीत की मस्ती में डूब गये। सुबह हो चुकी थी। राजा त्रिपृष्ट की आँख खुली। संगीत अब भी चल रहा था। राजा ने शय्यापालक से संगीत बन्द न करवाने का कारण जानना चाहा। सेवकों ने कहा-“संगीत इतना अच्छा था कि हम इसे छोड़ नहीं सकते थे। इस कारण संगीत चलता रहा।" राजा को सेवकों की बात पर क्रोध आ गया। उसने आज्ञा की अवहेलना करने वाले शय्यापालक के कानों में पिघला शीशा उँड़ेल दिया। बेचारा शय्यापालक भयंकर वेदना से तड़फने लगा। उसके प्राणों का अन्त हो गया। त्रिपृष्ट वासुदेव ने सत्ता के मद में बहुत से क्रूर कृत्य किये जिसके कारण निकाचित कर्मों का बन्धन किया। महारम्भ और महापरिग्रह के कारण उसने ८४ लाख पूर्व वर्ष तक राज्य किया। __ कई आचार्यों की मान्यता है कि इसी भव में नयसार के जीव का सम्यक्त्व नष्ट हुआ। वह मरकर कुगति को प्राप्त हुआ। उन्नीसवाँ भव-सातवीं नरक र्ण कर सातवें तमस्तमा नरक के अप्रतिष्ठान नरकावास में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुआ। बीसवाँ भव वहाँ से मरकर वह केसरी सिंह बना। यह भव दिगम्बर ग्रन्थ उत्तरपुराण में उपलब्ध होता है। वह भयंकर सिंह किसी समय हरिण को पकड़कर खा रहा था। उस समय एक चारण लब्धिधारी मुनिराज पधारे। उन्होंने उच्च स्वर में उस जीव को धर्मोपदेश सुनाया और उसके त्रिपृष्ट के भव के पाप गिनाये, जिसके कारण वह सम्यक्त्व से भ्रष्ट हुआ था। जिसके परिणामस्वरूप उसे सिंह का जन्म मिला। मुनि की उद्घोषणा के कारण उस जीव को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उत्तरपुराण का कर्ता कहता है-मुनिराज ने उसे पुरुरवा आदि समस्त भवों का बोध करवाया और कहा- “मैंने यह भव-विवरण श्रीधर तीर्थंकर के मुख से सुना है, तू दस भव पूर्ण कर तीर्थंकर बनेगा।" सिंह के जीव ने मुनि से तत्त्वचर्चा सुन श्रावक व्रत ग्रहण किये। वह मरकर सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव बना। दो सागर की आयु भोगकर वह धातकीखण्ड के विदेह क्षेत्र में राजा कनकपुण्ड्र और कनकमाला का पुत्र हुआ। एक बार वह अपनी पत्नी कनकवती के साथ महागिरि पर गया, वहाँ उसे प्रियमित्र मुनि के दर्शन-उपदेश का सौभाग्य मिला। उसने संयम ग्रहण कर लिया और सातवें स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहाँ से देवलोक की आयु पूर्ण कर जम्बूद्वीप के कौशल देश की साकेत नगरी में राजा व्रजसेन और रानी शीलवती के यहाँ हरिषेण राजकुमार बना। यहाँ भी उसकी आत्मा जागृत थी। उसने मुनि श्रुतसागर से दीक्षा ग्रहण की। आयु पूर्ण कर महाशुक्र देवलोक में १६ सागरोपम आयु वाला देव बना। इन भवों की चर्चा श्वेताम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। इक्कीसवाँ भव-चौथी नरक श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार सिंह का जीव मरकर चौथी नरक में गया। नरक से निकलने से पश्चात् उसने अनेक भव में तिर्यंच और मनुष्य के रूप में जन्म लिया। इन भवों की गिनती संख्या से बाहर है। | ३४ ३४ -- सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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