________________
प्रजापति अपने पुत्रों को भेजना नहीं चाहता था । पर दोनों पुत्रों ने पिता से जाने की अनुमति माँगी । बहुत आग्रह करने पर पिता ने बहुत सारे शस्त्र व सैनिकों के साथ पुत्रों को रवाना किया।
वे धान के खेतों में पहुँचे। वहाँ खेत-रक्षकों से पूछा - "राजा यहाँ पर किस प्रकार और कितने समय तक रहता है ?"
खेत-रक्षकों ने कहा- "जब तक धान पक नहीं जाता, राजा चतुरंगिनी सेना के साथ इस क्षेत्र का घेरा डालकर रक्षा करता है।"
त्रिपृष्ट ने पूछा - "मुझे उस सिंह की गुफा बताओ, जहाँ आतंक मचाने वाला वह सिंह रहता है ।"
ग्रामवासियों ने न चाहते हुए त्रिपृष्ट को गुफा का रास्ता बता दिया। रथ पर सवार सशस्त्र त्रिपृष्ट कुमार उस गुफा के समीप पहुँचा।
सिंह अँगड़ाई लेकर उठा। उसने सिंह-गर्जन किया । त्रिपृष्ट ने विचार किया- 'सिंह निहत्था है, मुझे भी शस्त्र रखकर सिंह का मुकाबला करना चाहिए।' उसने अपने शस्त्र फेंक दिये, रथ भी छोड़ दिया।
सिंह ने त्रिपृष्ट को देखा । त्रिपृष्ट ने सिंह को । सिंह त्रिपृष्ट कुमार पर कूद पड़ा । त्रिपृष्ट कुमार गुफा में प्रवेश कर चुका था। उसने सारथी व रथ बाहर खड़ा कर दिया था क्योंकि उसने सोचा था कि जब सिंह अस्त्र शस्त्र व रथरहित है, तो मैं भी कायरता नहीं दिखाऊँगा । अकेले कुमार ने सिंह-गर्जना का अभूतपूर्व शौर्य से उत्तर दिया । उसने सिंह को जबड़ों से पकड़ा और पुराने वस्त्र की तरह चीर डाला । सिंह अब हार चुका था । उसके प्राण अटके हुए थे। पास में सारथी ने सिंह की इस दुर्दशा को देखा फिर सान्त्वना भरे स्वर में कहा - "हे वन के स्वामी ! तुम पशुओं में सिंह हो, मेरा स्वामी मनुष्य में सिंह है । दो सिंहों की लड़ाई थी । किसी की विजय तो होनी थी । सो तू घबरा मत। यह तो जन्म-मरण का चक्र है।" सिंह के प्रति कहे सारथी के शब्दों ने सिंह को सचमुच सान्त्वना प्रदान की, जिससे वह शान्त भाव से प्राण त्याग सका।
त्रिपृष्ट कुमार सिंह - चर्म को लेकर जब गाँव आये, सारा गाँव उनके अभूतपूर्व साहस से धन्य-धन्य कर उठा । उन्होंने अपने कृषकों से कहा- "उस घोटक ग्रीव से कह देना- अब निश्चिन्त रहे ।”
जब अश्वग्रीव कुमार की शौर्य गाथा का पता चला, तो वह ईर्ष्या और भय की आग में जल उठा। उसने एक षड्यन्त्र रचा। उसने दोनों राजकुमारों को अपने यहाँ राजधानी में बुलाया। दोनों वहाँ नहीं गये ।
इस बात से जल-भुनकर उस अश्वग्रीव ने पोतनपुर पर चढ़ाई कर दी। त्रिपृष्ट कुमार भी सैन्य बल के साथ सामने आया। उसे नरसंहार अच्छा न लगा । "हमारी आपसी दुश्मनी में इन बेचारे सैनिकों का क्या दोष ? अगर युद्ध करना तो हम दोनों करेंगे।" - विश्वभूति ने यह प्रस्ताव अश्वग्रीव के सामने रखा।
अश्वग्रीव ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दोनों में युद्ध हुआ। सभी शस्त्र - अस्त्र समाप्त हो गये, तो राजा चक्ररत्न फेंका। त्रिपृष्ट ने चक्ररत्न पकड़ लिया। उसी के चक्ररत्न से राजा का सिर छेदन कर डाला। तभी दिव्य वाणी से नभमण्डल गूँज उठा- - "त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया है।”
यहाँ दिगम्बर उत्तरपुराण में विशाखनन्दी का जीव अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव कहा गया है वहाँ सिंह का प्रसंग नहीं है। समय आने पर अश्वग्रीव को नष्ट कर वह त्रिपृष्ट वासुदेव बना । त्रिपृष्ट जहाँ योद्धा था, वहाँ क्रोधी भी था । उसके क्रोध के कारण उसे भगवान महावीर के भव में तपस्या काल में कई उपसर्ग आये। उदाहरण के लिए हम यहाँ एक प्रसंग दे रहे हैं
Jain Educationa International
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
For Personal and Private Use Only
३३
www.jainelibrary.org