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________________ विश्वभूति युद्ध मैदान से वापस आया। वह पुनः राजकीय उद्यान के लिए सपरिवार जाने लगा। दरबान ने प्रार्थना की-“महाराज ! अब आप रुकिये, क्योंकि युवराज विशाखनंदी उद्यान में परिवार सहित जल-क्रीड़ा कर रहा है।" विश्वभूति रुक गया। उसे गहरा आघात लगा। वह सोचने लगा-'मैं जिनके लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार हूँ, वे मेरी जान के प्यासे हैं। यह कपटयुक्त व्यवहार मुझे उद्यान से निकालने के लिए किया गया।' उद्यान में ही क्रोध उमड़ आया। क्रोधावेग में वहीं पर कपित्थ (कैथ) के वृक्ष पर पाँव से प्रहार किया। एक प्रहार से वृक्ष के सारे फल धरती पर गिर पड़े। विश्वभूति ने गुस्से में आकर द्वारपालों से कहा-“जैसे मैं एक झटके से इन फलों को धरती पर गिरा सकता हूँ, वैसे एक ही बार में कितनों के प्राण मैं ले सकता हूँ। पर राजा के गौरव के कारण मैं ऐसा नहीं कर रहा। उद्यान में ही जाना था तो मुझसे पूछकर जा सकता था। मैं युवराज को इंकार नहीं करता। पर यह धोखा करने की क्या जरूरत थी? अब जाओ, अपने राजकुमार विशाखनंदी से कह दो, इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।" ____ मुनि विश्वभूति ने गुस्से में ये बातें कह तो दी, पर यही ग्लानि शीघ्र ही वैराग्य में बदल गई। उसने एक ही झटके में घर-परिवार का मोह छोड़ा और आर्य संभूति से संयम ग्रहण कर लिया। कठोर साधना आदि दीर्घ तपस्या से तपोजन्य उपलब्धियाँ प्राप्त की। ____ एक बार की बात है, मुनि विश्वभूति अनगार मथुरा में भ्रमण कर रहे थे। इधर मथुरा में विशाखनंदी अपनी शादी के लिए आया हुआ था। तप के कारण विश्वभूति का शरीर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसे पहचानना मुश्किल था। मुनि विश्वभूति तपस्या के पारणे हेतु भिक्षा के लिए घूम रहे थे। युवराज विशाखनंदी के सेवकों ने उन्हें पहचान लिया और युवराज विशाखनंदी को सूचना दी। विशाखनंदी सामने आया। उसने देखा एक महान् योद्धा तप के कारण जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। उसका क्रोध शांत नहीं हुआ था। वह मुनि को घूरकर देख रहा था। अचानक एक सद्यःप्रसूता गाय मुनि को टक्कर देकर चलती बनी। मुनि की इस दुर्दशा से वह पापी विशाखनंदी खूब प्रसन्न हुआ। उसने व्यंग्य करते हुए कहा-“विश्वभूति ! तुम्हारा वह पराक्रम जो कपित्थ को तोडते समय देखा गया था, कहाँ गायब है?" राजकुमार के व्यंग्यमय वाक्य मुनि की क्रोधाग्नि का कारण बने। उन्होंने आवेश में आकर कहा-"दुष्ट ! मैं साधु बन गया हूँ, तो भी तू मेरा मजाक कर रहा है। मैने जब संसार से रिश्ता तोड़ दिया है, तो मेरी साधना का मजाक करने का तुझे कोई अधिकार नहीं। तूं मेरी क्षमा व तपस्या को मेरी दुर्बलता समझ रहा है। पर तुझ अज्ञानी को साधु भाषा में समझाना असम्भव है।" । मुनि का क्रोध अपने अंतिम आवेश में था। उन्होंने उसी समय उस गाय को दोनों सींगों से पकड़कर चक्कर की तरह घुमाकर आकाश में उछाल दिया। फिर उन्होंने निदान करते हुए कहा-"क्या दुर्बल सिंह शृगाल से गया-गुजरा होता है ? यदि मेरे जप, तप, संयम व ब्रह्मचर्य में शक्ति हो, तो अगले जन्म में असीमित शक्तिशाली बनूँ।" इस प्रकार बिना आलोचना किये और निदान के कारण मुनि कालधर्म को प्राप्त हुए। यहाँ आश्चर्य इस बात का है कि दिगम्बर आचार्य गुणभद्र ने इस बात का वर्णन श्रेयांस तीर्थंकर के पूर्वभव बताने में किया है। वहाँ सभी प्रकरण एक समान नहीं है, वहाँ विश्वभूति के स्थान पर विश्वनंदी नाम आया है। विश्वनंदी के स्थान पर विश्वभूति। परिवार के नामों में अंतर है। उत्तरपुराण में आया है कि विश्वभूति दीक्षा लेकर राज्य अपने छोटे भाई को दे देते हैं पर यहाँ कपित्थ वृक्ष व कपट युद्ध का वर्णन नहीं है। यहाँ दोनों भाइयों का उद्यान में युद्ध दिखाया है। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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