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________________ ग्यारहवाँ भव-सनत्कुमार वहाँ से आयु पूर्ण कर सनत्कुमार कल्प में मध्यम स्थिति वाला देव बना। बारहवाँ भव-भारद्वाज वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर श्वेताम्बिका नगरी में भारद्वाज नाम का ब्राह्मण बना। उसकी आयु ४४ लाख पूर्व की थी। यहाँ भी वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना। उत्तरपुराण के अनुसार एक भव अग्निमित्र का और द्वितीय भव माहेन्द्रकल्प का ये दो भव और हुए। वहाँ से चलकर यह जीव शाङ्कण ब्राह्मण की पत्नी मन्दिरा के यहाँ विश्व-विश्रुत भारद्वाज-पुत्र के रूप में पैदा हुआ। तेरहवाँ भव ___ भारद्वाज वहाँ से आयु पूर्ण कर माहेन्द्र कल्प में मध्यम स्थिति वाला देव बना। यहाँ से च्यवकर उसकी आत्मा ने अनेक भव ग्रहण किये जो संख्यातीत थे। चौदहवाँ भव मरीचि का जीव विभिन्न गतियों में भ्रमण करता हुआ राजगृह में स्थावर नामक ब्राह्मण हुआ। वहाँ उसकी कुल आयु चौंतीस लाख पूर्व थी। जीवन के अंत में वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना। इस तरह ६ भव परिव्राजक के माने जाते हैं। यहाँ एक बात ध्यान देने वाली है कि वह नयसार के भव में जाकर सम्यक् दर्शन का प्रचारक बना। चाहे शुरू में परिव्राजक सम्प्रदाय श्रमणों का अंग था। बाद में यह सम्प्रदाय मिथ्या आग्रहों में फँस गया। एकान्त आग्रह के कारण परिव्राजकों की साधना बाल साधना बनकर रह गई। ऐसी साधना स्वर्ग का कारण तो बन सकती है, पर मोक्ष का कारण नहीं बन सकती। सम्यक्त्व के अभाव में इस जीव को अनंत-अनंत जन्म भटकना पड़ता है। सम्यक्त्व मिलने पर संसार भ्रमण-परित्र-सीमित हो जाता है, जैसा नयसार के साथ हुआ। पन्द्रहवाँ भव-ब्रह्मदेवलोक __इस भव में वह जीव मध्यम देवलोक की स्थिति वाला देव हुआ। उत्तरपुराण में ब्रह्मा के स्थान पर माहेन्द्र नाम आया है। देवलोक की आयु संपूर्ण कर उसकी आत्मा ने अनेक बार अनेक भवों में जन्म लिया। सोलहवाँ भव-विश्वभूति ब्रह्मलोक की आयु पूर्ण कर नयसार का जीव लम्बे समय तक जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहा। लम्बे भव-भ्रमण के पश्चात् वह मगध की राजधानी राजगृह में युवराज विशाखभूति के पुत्र विश्वभूति के रूप में पैदा हुआ। विशाखभूति का बड़ा भाई विश्वनन्दी राजा था। उसका पुत्र था विशाखनंदी। दोनों भाइयों में आपसी ईर्ष्या-द्वेष कूट-कूटकर भरा हुआ था। विश्वभूति यद्यपि राजा के छोटे भाई का पुत्र था पर वह बड़ा तेजस्वी, पराक्रमी था। दूसरी ओर राजा का पुत्र विशाखनंदी कायर, भीरु और चिड़चिड़ा था। यही कारण था कि विश्वभूति अपने परिवार में सम्मान का पात्र था। विश्वभूति को पुष्प-क्रीड़ा का अत्यधिक शौक था। वह अपनी रानियों के साथ उद्यान में जाता और विभिन्न फूलों की गेंद बनाकर उनसे खेलता। इधर जब राजकुमार विशाखनंदी, विश्वभूति के क्रीड़ा सुख की बात सुनता, तो द्वेष कर जल-भुन जाता। उसका मन करता कि वह अभी उद्यान में जाकर विश्वभूति को निकाल दे। वह अपनी माता तक के सामने इस बात के लिये चीखपुकार करता। पर सब दिन एक समान नहीं होते। कभी-कभी पुण्यवान जीव को भी मुसीबत में फँसना पड़ता है। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - २९ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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