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चउपन्नमहापुरिसचरियं में मरीचि को भागवत धर्म का प्रवर्तक कहा गया है। मरीचि के अतिरिक्त उसके शिष्य सांख्यमत प्रवर्तक कपिल का वर्णन जैसा जैन ग्रंथों में आया है, वैसा भागवत और विष्णुपुराण में उपलब्ध नहीं होता है। भागवतकार ने भरत वंश की परम्परा का वर्णन करते हुए अनेक पीढ़ियों के पश्चात् उसे सम्राट् पुत्र कहा है। उसकी माता का नाम उत्कला दिया है।
जैन साहित्य में कपिल को राजपुत्र माना गया है। वैदिक-साहित्य में वह विष्णु का पाँचवाँ अवतार व कर्दम ऋषि का पुत्र है। उसे महाज्ञानवान, प्रतिभा सम्पन्न माना गया है। भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने उन्हें सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ माना है। चतुर्थ भव-ब्रह्मदेव
चौरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर मरीचि का जीव ब्रह्मदेवलोक में दस सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। पाँचवाँ भव-कौशिक ___ यहाँ से स्वर्ग की आयु पूर्ण कर मरीचि का जीव कोल्लाक सन्निवेश में अस्सी लाख पूर्व की आयु वाला कौशिक ब्राह्मण बना। फिर पूर्वजन्म के शुभ कर्म के परिणाम से उसने वैराग्य धारण कर परिव्राजक दीक्षा स्वीकार की। आचार्य शीलांक ने लिखा है कि कौशिक का जीव मरकर सौधर्म देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव बना था।
दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में भी ऐसा ही वर्णन है। उसका जन्म-स्थान अयोध्या कहा गया है। उसका पिता कपिल ब्राह्मण और माता काली है। उसका नाम जटिल कहा गया है। इस भव की आयु के बाद उसने विभिन्न गतियों में जन्ममरण किया जो संख्यातीत है। छठा भव-पुष्यमित्र ___ कौशिक का जीव अपनी आयु पूर्ण करके स्थूणा (स्थानेश्वर) में पुष्यमित्र नामक ब्राह्मण हुआ। वहाँ उसकी आयु . ७२ लाख पूर्व की थी। अंतिम समय में वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना। सातवाँ भव-सौधर्मदेव
जैनधर्म में जाति-पाँति, धर्म व लिंग का महत्त्व नहीं है, न ही देश, काल व आयु का प्रश्न है। जो भी साधना करे उसे उसकी साधना अनुसार जरूर फल मिलता है। इसी दृष्टि से पुष्यमित्र मरकर सौधर्म देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना। वहाँ उसने देवता के सुख भोगे। आठवाँ भव-अग्निद्योत
देवलोक की आयु पूर्ण कर वह चैत्य सन्निवेश में अग्निद्योत नाम का ब्राह्मण हुआ। उसकी आयु ७६९ लाख पूर्व की थी। वहाँ भी वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना। दिगम्बरों के उत्तरपुराण में इस भव का वर्णन नहीं मिलता है। नवमा भव-ईशान देवलोक
यहाँ से आयुष्य पूर्ण कर अग्निद्योत ब्राह्मण ईशान देवलोक में पैदा हुआ।वहाँ लम्बे समय तक देवलोक के सुख भोगे। दसवाँ भव-अग्निभूति ___ इस भव में उसका जन्म मन्दिर सन्निवेश में हुआ। उसका कुल ब्राह्मण था। उसकी कुल आयु ५६ लाख पूर्व थी। जीवन के अंतिम काल में वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना। पूर्वजन्म का मरीचि भव-भव में परिव्राजक बनकर साधना करता गया। साधना का फल सदैव मीठा होता है फिर साधना चाहे किसी रूप या वेष में की जाये। उत्तरपुराण में सूतिका नामक भव में अग्निभूति ब्राह्मण की पत्नी गौतमी के यहाँ अग्निसह ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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