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भगवान ऋषभदेव द्वारा मरीचि का भविष्य कथन ___ एक बार भगवान ऋषभदेव धर्म-प्रचार करते हुए अयोध्या नगरी पधारे। भरत चक्रवर्ती चतुरंगी सेना लेकर दर्शन करने आया। उस समय भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया
“प्रभु ! आपके समवसरण में ऐसा कोई जीव है जो आपके समान तीर्थंकर बनने योग्य हो?"
ऋषभ प्रभु ने कहा-“हाँ देवानुप्रिय ! है। तुम्हारा पुत्र मरीचि इस काल में अंतिम तीर्थकर वर्द्धमान के रूप में उत्पन्न होगा। इससे पूर्व वह पोतनपुर का अधिपति त्रिपृष्ट वासुदेव बनेगा। फिर विदेह क्षेत्र की मूका नगरी में तुम्हारे जैसा ही प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बनेगा। इस प्रकार वह जीव तीन उपाधियों को प्राप्त करेगा।'
भगवान की भविष्यवाणी से भरत चक्रवर्ती प्रसन्न हुआ। वह परिव्राजक बने अपने पुत्र मरीचि के पास आया। प्रभु ऋषभदेव की भविष्यवाणी भरत ने हर्षावेग के साथ कहा
"मरीचि ! तू धन्य है। तू बड़ा भाग्यशाली है। तेरा भविष्य महान् है। तू भविष्य में वासुदेव बनेगा। चक्रवर्ती पद पायेगा और अंत में धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर बनेगा।"
अपने भविष्य को सुनकर मरीचि इतना प्रसन्न हुआ कि उसके मन में प्रसन्नता के साथ कुछ अहंकार का अंश भी आ गया। वह नाचता हुआ इस प्रकार कहने लगा___“अहा ! मैं कितना महान् हूँ। मेरा कुल और वंश महान् है। मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव हैं। मेरे पिता भरत प्रथम चक्रवर्ती हैं और मैं प्रथम वासुदेव, फिर चक्रवर्ती बनूँगा । फिर तीर्थंकर बनूँगा। हर्ष और जातीय गौरव में फूलकर उसने अपने पैरों को तीन बार जमीन पर पछाड़कर कहा- 'मैंने बहुत प्राप्त कर लिया है। अब इससे अधिक मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है।'' वह अहंकारवश नाचने-कूदने लगा। __ अहंकार पतन की पहली सीढ़ी है। वह जातीय अहंकार और आत्म-प्रशंसा के कारण अपनी उत्कृष्ट साधना के फल से वंचित हो गया। उसने कुल मद के कारण नीच गोत्र का बंध किया जिसका फल भविष्य में उसे भोगना पड़ा। (देखो चित्र १)
एक बार मरीचि बीमार पड़ गया। उसकी सेवा के लिये उसका कोई शिष्य नहीं था। उसे शिष्य की जरूरत का अहसास हुआ। उसने एक राजकु मार कपिल को दीक्षित किया।
कपिल मुनि ने अपने गुरु मरीचि से पूछा-“आप कठोर संयम के मार्ग को क्यों नहीं अपनाते?" मरीचि ने शिष्य को गलत उत्तर देते हुए कहा-"मेरे मार्ग व जिनमार्ग में कोई अंतर नहीं है।'
कपिल ने मिथ्या मत की स्थापना की । मरीचि ने अंतिम समय में बिना आलोचना किये जीवन पूरा किया। मरीचि का कुल अभिमान का फल उसे लम्बे समय तक भोगना पड़ा। मरीचि का जीव कोटाकोटि सागरोपम तक संसार में भटकता रहा।
मरीचि भगवान ऋषभदेव के प्रथम उपदेश में ही उनका शिष्य बना था। मरीचि के अनेक शिष्य, जिन्होंने मरीचि का साथ दिया था, उसके जीवन में उसे छोड़ पुनः प्रभु के श्रीसंघ में साधु बन गये थे।
जैन परम्परा मरीचि को परिव्राजक सम्प्रदाय का संस्थापक मानती है। इसी कारण परिव्राजक सम्प्रदाय को श्रमणों का अंग माना गया है। प्राचीन काल में ये लोगों की वेद विरोधी विचारधारा का समर्थन करते थे।
गुणभद्र आचार्य ने मरीचि को भरत का ज्येष्ठ पुत्र माना है। परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में मात्र पुत्र माना है।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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