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मुनियों ने उसे धर्म का रहस्य बताते हुए कहा - " सरलता और शान्ति धर्म का बीज है । देव, गुरु और धर्म की भक्ति करो। मिथ्यात्व को छोड़ो। सम्यक्त्व को ग्रहण करो। तुम्हारा जीवन सफल होगा।"
नयसार ने मुनि के उपदेश से सरलता से धर्मतत्त्व को ग्रहण किया। पर अभी तो यह शुरूआत थी । असली जीवन संग्राम की शुरूआत । तथागत बुद्ध ने अपने एक जन्म में दीपंकर बुद्ध को रास्ता दिखाया था । ऐसा वर्णन जातक अट्ठ कथा में आया है।
दिगम्बर परम्परा
आचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण (७४-१५) में इस कथा का वर्णन इस प्रकार से आया है
"जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के किनारे पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के मधुवन में पुरूरवा नाम का भीलों का सरदार रहता था । वह सभी कुव्यसनों का आदी था । "
एक बार वह जंगल में अपनी पत्नी के साथ शिकार को गया । दोपहर तक उसे कोई जीव नहीं मिला। दोपहर के समय उसने पत्तों में कुछ आवाज सुनी। उसने सोचा- 'कोई मृग पत्तों के पीछे छिपा बैठा है ?' पर ज्यों ही उसने तीर बाँधने की तैयारी की तो सामने सागरसेन नाम के मुनि के दर्शन हुए। पत्नी ने पति को समझाते हुए कहा- "ये हमारे वन के देवता हैं इन्हे मत मारो। "
पत्नी की बात सुनकर भील शांत हो गया । वह मुनि के पास आया। आकर मुनि को प्रणाम किया। मुनि महाराज के उपदेश से प्रभावित हो उसने मधु, माँस व शराब का त्याग कर दिया। इन व्रतों का पालन उसने मरते दम तक किया । यही पुरूरवा भविष्य में प्रभु महावीर के रूप में प्रकट हुआ ।
दूसरा भव
यह नयसार का जीव मरकर शुभ कर्म के कारण सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की स्थिति वाला देव बना । उत्तरपुराण में इसकी आयु एक सागरोपम कही गई है। लम्बे समय तक उसने स्वर्ग सुख भोगे ।
तीसरा - मरीचि का भव
स्वर्ग से चलकर नयसार का जीव तीसरे जन्म में भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के यहाँ राजकुमार मरीचि के नाम से पैदा हुआ। प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव का उपदेश सुनकर वह उनके पास साधु बना । वह विशुद्ध तपः साधना करता था । उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन भी किया ।
एक बार बहुत भयकंर गर्मी पड़ी। इस तप को उसका शरीर सहन न कर सका। उसने सोचा- 'मुझे गृहस्थ बन जाना चाहिये । संयम का पालन मैं नहीं कर सकता । संयम का मार्ग तो मेरे लिए मेरु के समान है।"
फिर सोचने लगा- 'गृहस्थ आश्रम में भी कौन - सा सुख है ? जो सुख का सत्य मार्ग है वह तो भगवान ऋषभदेव का बताया हुआ है। पर अब मैं इसमें चलने में असमर्थ हूँ। ऐसे में मुझे श्रमणों का वेष को छोड़ नया वेष ग्रहण करना चाहिये ।' यह सोचकर उसने परिव्राजक की वेषभूषा धारण कर ली । संकल्प - विकल्प में उसने यह निश्चय किया
"मैं हर ग्राम में भगवान ऋषभदेव के धर्म का प्रचार करूँगा। मैं कभी अपनी कमजोरी नहीं छिपाऊँगा ।"
वह दण्ड, छत्र, खड़ाऊँ को धारण करता । माथे पर त्रिदण्ड तिलक लगाता । गुरुआ वस्त्र धारण करता । सचित्त जल पीता । जो जिज्ञासु बनकर उसके पास पहुँचते, वह सबको स्पष्ट कहता - "सच्चा धर्म तो भगवान ऋषभदेव का है। मैं उस धर्म का पालन करने में असमर्थ हूँ।" इस प्रकार वह लोगों को प्रतिबोधित कर भगवान ऋषभदेव के साधु परिवार में वृद्धि करता ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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