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खाता। यह क्रम हर रोज चलता था पर एक दिन ऐसा भी आया कि उसके जीवन में दिव्य घटना घटी, जो भविष्य में उसे तीर्थंकरत्व की यात्रा की ओर ले गई।
सुपात्रदान
एक दिन की बात कि धूप बहुत थी। मजदूर काम करते-करते थक चुके थे। नयसार ने सबको भोजन करके आराम करने की सलाह दी । वह स्वयं भी भोजन करने के लिए बैठ गया। नौकरों ने उसके सामने भोजन रखा। भोजन को देखते ही नयसार चिंतन करने लगा - "इतनी धूप है, जंगल है। ऐसे में जैसे मुझे भूख लगी है, कितने प्राणी भूखे होंगे। कोई अतिथि अगर इस समय आ जाये, तो मैं उसे भोजन कराकर ही भोजन करूँ ।" आत्मा के जब शुभ परिणाम होते हैं तो सब मंगलमय होता है। आत्मा के परिणामों से शुभ-अशुभ कर्म का बंधन होता है। नयसार अपने स्थान से उठा। ऊँचे पहाड़ पर खड़ा हुआ फिर तलहटी की ओर उसने नजर दौड़ाई। उसने देखा कि बहुत दूर कुछ मुनि रास्ता भटके हुए इधर आ रहे हैं। वह दौड़कर उन मुनियों की ओर भागा। इस भयंकर गर्मी में मनुष्य को देखकर थके-हारे मुनियों को प्रसन्नता हुई।
नसार ने मुनियों को नमस्कार किया। थके-माँदे मुनियों से नयसार ने पूछा - "भगवन् ! आप इस तपती दोपहरी इस जंगल में कैसे पधारे ?"
में
मुनियों ने कहा- "भद्र ! हमने सार्थवाह ( काफले) के साथ प्रस्थान किया था । सार्थ ने एक स्थान पर विश्राम किया। उसी समय हम पास के ग्राम में भिक्षा के लिए निकले। पुनः अपने स्थान पर आये, तो सार्थ समूह पहले ही निकल चुका था। हम भी चले । पर आगे आकर रास्ता भूल गये ।" नयसार ने मुनियों की बात को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सुना। उसने मुनियों को कहा - " भगवन् ! चिंता की कोई बात नहीं । आप मेरे से पहले शुद्ध आहार ग्रहण कीजिये, विश्राम कीजिये । मैं आपको जहाँ भी कहो, वहीं छोड़ आऊँगा। मेरे यहाँ मीठी छाछ व खाना तैयार है, पहले उसे ग्रहण करो।" जैन मुनि तो भिक्षा के ४२ दोष टालकर भिक्षा ग्रहण करता है। वह पात्र (दानी) व भोजन दोनों की शुद्ध परखकर भोजन ग्रहण करता है। इसीलिए जैन साधु के भोजन को गोचरी कहा गया है- "जैसे गाय घास के मैदान में घास को खाती है पर घास का कोई नुकसान नहीं होता । साधु भी इसी तरह दाता से भिक्षा ग्रहण करता है । इसे मधुकरी भी कहते हैं । जिस प्रकार भँवरा फूल-फूल के कण से शहद इकट्ठा करता है, साधु भी हर घर से घूमकर थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करता है। वह अपने लिये खरीदा, बनाया, सामने बनाया भोजन ग्रहण नहीं करता है। यह भोजन चाहे कितना ही शुद्ध हो, ऐसा भोजन निर्दोष नहीं माना जाता है।
नयसार ने मुनियों की ओर देखा । मुनियों ने नयसार द्वारा प्रदत्त भोजन की ओर । शुद्ध आहार था । लेने वाला सुपात्र था। मुनियों ने भोजन ग्रहण किया । भोजन खाने के बाद वह मुनि - मण्डली चलने को तैयार हुई । नयसार को मुनियों से इस तरह लगाव हो गया कि वह भावुक हो उठा। उसकी आँखें विनम्रता और सरलता के कारण भर आई । सचमुच सरल हृदय में धर्म ठहरता है। बनावटी व कपटी लोगों के पास धर्म का क्या काम ? उनके पास धर्म नहीं, दम्भ ठहरता है। दम्भ मिथ्यात्व का दूसरा रूप है।
मुनियों ने नयसार से कहा- "भद्र ! तू रोता क्यों है ? तू भाग्यशाली है। तूने सुपात्रदान दिया है जो बड़े भाग्य से उपलब्ध होता है। तूने हमारी खूब सेवा की है। हमें रास्ता बताया है । हमारा भी कर्तव्य है कि तुम्हें धर्मोपदेश दें। तुम्हें कुछ मार्ग बतायें।”
नयसार ने निवेदन किया- "हाँ महाराज ! मुझ गरीब पर आपने इतने उपकार किये। इस जंगल में तो पशु-पक्षी के अतिरिक्त मनुष्य कहाँ आता है ? आप पधारे। मेरा भोजन पवित्र किया। इस घर को पूजनीय बनाया। अब मुझको धर्मोपदेश देने की कृपा करें।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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