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को तीर्थंकर गोत्र बाँधने के लिए कितने जन्मों की यात्रा करनी पड़ी। श्रमण भगवान महावीर की महानता को प्रकट करने में ये भव हमारी साधना के लिए शिक्षा प्रदान करते हैं। तीर्थंकर महावीर को महावीर बनने से पहले जिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, उन सबका वर्णन है।
श्वेताम्बर परम्परा में भी भवों की संख्या का अंतर ही नहीं अपितु नाम, स्थल और आयु संबंधी दोनों परम्पराओं का अंतर है। पर पुनः हम पाठकों का ध्यान खींचना चाहते हैं कि इन जन्मों के बीच अंतिम सत्ताईसवें भव गर्भपरिवर्तन को आचार्यों ने भव नहीं माना। क्योंकि यह घटना इन्द्र के आदेश से हुई। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह भी अच्छेरा (आश्चर्य) था। समवायांगसूत्र की वृत्ति आचार्य अभयदेवसूरि ने छब्बीसवाँ भव देवानंद ब्राह्मणी की कुक्षि से जन्म ग्रहण करने का बताया है। सत्ताईसवाँ भव त्रिशला रानी के गर्भ में आने का आचार्य अभयदेव के अतिरिक्त किसी भी ग्रंथ में गर्भ-परिवर्तन को भव नहीं माना है।
__ अब हम पाठकों के समक्ष प्रभु महावीर के उन जन्मों का वर्णन करते हैं, जिनमें उन्होंने विशिष्ट साधना की । नरक भोगे। स्वर्ग भोगे। मनुष्य गति व पशु गतियों का भ्रमण किया। विभिन्न प्रकार से कर्मफल भोगे। जैसे पहले कहा जा चुका है कि जैन तीर्थंकर किसी भी वैदिक परम्परा की तरह देवी-देवता का अवतार नहीं होते। वे तो सामान्य पुरुष होते हैं। अपने शुभ कर्मों से तीर्थकरत्व को प्राप्त कर जन्म-मरण की यात्रा समाप्त करते हैं। जब तक जीते हैं साकार परमात्मा का रूप अरिहंत कहलाते हैं। निर्वाण के बाद वही निराकार सिद्ध परमात्मा बनते हैं। वे राग-द्वेष से मुक्त, रत्नत्रयी के स्वामी होते हैं। भगवान महावीर की कथा बड़ी रोचक रही है। यह कथा प्राचीन मान्यताओं का सुन्दर समन्वय है। यह कथा जन्म, जरा, मृत्यु में फँसे प्राणियों को उबारने के लिए, उनको प्रेरणा देने के लिये और महावीरत्व से पहले उन्हें कितने जन्मों तक भटकना पड़ा, उसकी सजीव गाथा है। महावीर के पूर्व भवों का वर्णन इस प्रकार हैप्रथम-नयसार का भव
संसार के भव-चक्र में प्राणी अनंत काल से थपेड़े खा रहा है। इस भव-चक्र को जैन परिभाषा में कर्मबंधन कहते हैं। कर्म की परिभाषा जैनधर्म की अपनी है। कर्म को मात्र कार्य नहीं माना गया है, न ही भाग्य। जैनधर्म में कर्मवाद का स्वतन्त्र सिद्धांत है। इस कर्म के फल से न ईश्वर बच सकता है न मनुष्य। जैन सिद्धान्त कहते हैं कि शक्ति-सम्पन्न ईश्वर राग-द्वेष से मुक्त है। वह संसार के किसी चक्र में नहीं पड़ता । संख्या की दृष्टि से ईश्वर एक नहीं। जितनी आत्माएँ हैं सभी में ईश्वर समाया हुआ है। हर आत्मा परमात्मा बनती है, अर्हत् बनती है, केवली बनती है, जिन बनती है, सर्वज्ञ पुरुषोत्तम त्रिलोकीनाथ बनती है, संसार द्वारा पूजित बनती है। पर कर्म के अनुसार, उसे जन्म-मरण, शुभ-- अशुभ गति में घूमना होता है। भगवान महावीर का जीव प्रथम भव में नयसार नामक प्राणी था। आपका जन्म महाविदेह क्षेत्र के महावप्रविजय में जयन्ती नगरी के अन्तर्गत पुरप्रतिष्ठान ग्राम में हुआ। वहाँ का राजा शत्रुमर्दन था।
न महावीर के जीव ने सबसे पहले इसी जन्म में सम्यक दर्शन प्राप्त किया था।३ नयसार ग्राम चिंतक था। ग्राम का मखिया होते हए भी वह बडा सरल. विनम्र और हँसमख स्वभाव का था। वह लोगों में बहत ही प्रिय था। वहाँ का सम्राट् उसकी सरलता व ईमानदारी से बहुत प्रभावित था।
एक समय की बात है राजा ने अपने लिए एक भव्य राजप्रासाद बनाना शुरू किया। इसके लिए राजा को काफी मात्रा में इमारती लकड़ी की जरूरत थी। सम्राट ने इस कार्य के लिए नयसार को चुना। नयसार लकड़ी के कार्य का विशेषज्ञ था। नयसार अनेक कर्मचारियों व गाड़ियों को लेकर जंगल में गया। उसने देवदार, साल आदि के वृक्षों को कटवाना शुरू किया। उसमें से वह अच्छी लकड़ी अपने कारीगरों से कटवाता जोकि राजप्रासाद के निर्माण के काम आ सके।
नयसार का जंगल भव्य था। उसने कार्य के लिए हजारों स्थानीय मजदूरों को ठेके पर रखा था। हर दोपहर को मजदूर अपने घर से लाया खाना खाते। खाना खाकर पुनः काम पर लग जाते। नयसार भी मजदूरों के साथ ही खाना
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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