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________________ भगवान महावीर : पूर्वभवों का वर्णन महावीर की पृष्ठभूमि ___ हमने पिछले पृष्ठों के माध्यम से जैनधर्म की प्राचीनता तथा तीर्थंकरों के बारे में महत्त्वपूर्ण ज्ञान अर्जित किया है। तीर्थंकरों के सम्बन्ध में श्री आचारांगसूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने कहा है__"जितने भी तीर्थंकर पहले हुए हैं, वर्तमान में हैं, भविष्य में होंगे उन सबका उपदेश एक ही है वह है अहिंसा। किसी भी जीव का हनन मत करो। किसी भी जीव को बंधक मत बनाओ। सभी को प्राण प्रिय हैं। कोई भी मरना नहीं चाहता है।" भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन श्वेताम्बर मान्यताओं के आचारांग व कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता। समवायांग में प्रभु महावीर के एक भव का वर्णन है, उन्होंने सम्यक् दर्शन की उपलब्धि जिस भव में प्राप्त की, इसका सर्वप्रथम वर्णन आवश्यकनियुक्ति में मिलता है। तीर्थंकरों के समवसरण व धर्मोपदेश के विषय में श्री उववाईसूत्र में बताया गया है- “सभी तीर्थंकर जीव-अजीव की व्याख्या करते हैं।" ___ “संसार में यह जीव अनंत काल से विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है, मरता है, पुनः फिर जन्म लेता हैसंसार में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, कोई गति नहीं, कोई योनि नहीं, जहाँ इस जीव को भटकना न पड़ा हो। जन्म, जरा, मृत्यु से ग्रसित इस संसार के जीव को जन्म-मरण के चक्र से बचने के लिए संयम-साधना करनी पड़ती है। अरिहंत, सिद्ध, साधु व धर्म की शरण में जाना पड़ता है।" उत्तराध्ययनसूत्र में जिन दुर्लभ वस्तुओं का वर्णन है उसमें प्रथम मनुष्य-भव है। मनुष्य के जन्म की प्राप्ति देवताओं से बढ़कर है। मनुष्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप की आराधना कर जन्म, जरा, व्याधि से मुक्त होकर परमात्मा बन सकता है। तीर्थंकर को पूर्वजन्मों में बहुत साधना करनी पड़ती है। सभी तीर्थंकरों के पूर्वभवों का वर्णन जैन ग्रंथों में उपलब्ध है। यहाँ पहले भव का अर्थ पहला जन्म नहीं। प्रथम भव का अर्थ वह जन्म है, जब तीर्थंकर जीवन की यात्रा शुरू होती है। इन्हीं जन्मों के बीच जब आत्मा अनेक बार नीच गति में चली जाती है उस जन्म को इसमें नहीं गिना जाता। इन सूचियों में मानव, देव, पशु के जन्मों का ही वर्णन किया जाता है। तीर्थंकर का जीव जरूरी नहीं कि स्वर्ग से आये। नरक भोगकर भी तीर्थंकर रूप में जन्म ले सकता है। तीर्थंकर परम्परा उतनी ही प्राचीन है, जितनी आत्मा या सष्टि। यह क्रम चलता रहता है। यहाँ कुछ घटता है, तो कुछ बढ़ता है, कुछ समाप्त होता है। तीनों को उप्पेइ वा, विगेइ वा धुवेइ वा कहा है। इसी दृष्टि से हम जैनधर्म को प्राचीनतम धर्म कहते हैं क्योंकि इसका कोई संस्थापक नहीं है। इसी क्रम में भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन जैन ग्रंथ आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, हरिभद्र वृत्ति, मलयगिरि वृत्ति, चउवन्न महापुरिसचरियं, महावीरचरियं, विशेषावश्यक भाष्य, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र और कल्पसूत्र की टीकाओं में उपलब्ध है। दिगम्बर परम्परा में पूर्वभवों का वर्णन उत्तरपुराण में आया है। श्वेताम्बर परम्परा में २७ भवों का वर्णन है और दिगम्बर परम्परा में ३३ भवों का । अब इन भवों का विवेचन हम करेंगे, ताकि हमें पता लग सके कि भगवान महावीर सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - २३ २३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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