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अक्कड़ और सुमेरन की संयुक्त प्रवृत्तियों से उत्पन्न बेवीलोनिया की संस्कृति और सभ्यता बहुत प्राचीन मानी जाती है। उनके विजयराजा हम्मूरावी (२१२३-२०८१ ई. पू.) के शिलालेखों से ज्ञात होता है- “स्वर्ग और पृथ्वी का देवता वृषभ था।"
सुमेरु लोग कृषि के देवता के रूप में बैल की पूजा करते थे । हिती लोग भी भगवान ऋषभदेव से प्रभावित रहे हैं। डॉ. राधाकृष्ण; डॉ. स्टीवेन्शन ३, जयचन्द विद्यालंकार इन्हें जैनधर्म का संस्थापक मानते हैं ।
कई लोग भगवान ऋषभदेव की समानता आदिम बाबा और शिव से करते हैं । दशम ग्रंथ में गुरु गोविंदसिंह को २४ अवतारों में एक अर्हत् अवतार माना है।
भगवान ऋषभदेव के साथ हजारों लोगों ने दीक्षा ग्रहण की। कुछ लोग संयम के कष्ट न झेल सके। पर वह घर नहीं आये। वह भिन्न-भिन्न भेषों में धर्म-प्रचार करने लगे। ऐसे ही कपिल नाम का राजकुमार था जो सांख्यदर्शन का संस्थापक बना।
जब प्रभु ऋषभदेव को अयोध्या में केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उसी दिन भरत राजा को पुत्र - रत्न प्राप्त हुआ व चक्रवर्ती बनने का लक्षण चक्र आयुधशाला में उत्पन्न हुआ । भरत ने सारी पृथ्वी जीती। वे प्रथम चक्रवर्ती बने। उनके छोटे भ्राता बाहुबलि, जो भरत से ज्यादा शक्तिशाली उन्होंने अपनी स्वतंत्रता का सौदा न किया । उन्होंने अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा के लिये भरत की अधीनता स्वीकार न की । युद्ध में सेनायें उठीं। दोनों ओर के मंत्री की सलाह से मल्ल - युद्ध, मुष्टि-युद्ध, दृष्टि-युद्ध हुए। सभी में बाहुबलि जीत गये। फिर भरत चक्रवर्ती ने चक्र चलाकर बाहुबलि को समाप्त करना चाहा। पर चक्र परिजनों पर नहीं चलता। इसी कारण वह बाहुबलि के पास आकर भरत के पास लौट आया। भरत के इस धोखे से बाहुबलि का मन वैराग्य की ओर मुड़ गया । बाहुबलि - भरत युद्ध गंधार देश में हुआ था । उनके १०० पुत्रों से १०० देशों की स्थापना हुई थी । भरत को पराजित कर बाहुबलि ने दीक्षा ग्रहण की । युद्ध - भूमि तप - भूमि बन गई । मन में द्वन्द्व चलता रहा, जिसे स्वयं भगवान ऋषभदेव ने अपनी साध्वी बनी पुत्री ब्राह्मी व सुन्दरी को भेजकर दूर किया ।
भगवान ऋषभदेव अपने दीक्षा काल में हर देश में घूमे। उन्होंने एक वर्ष का लम्बा तप किया। उस समय कोई भी शुद्ध भिक्षा देने वाला नहीं था । पर पुनर्जन्म के याद आने के कारण बाहुबलि के पौत्र श्रेयांस राजा ने प्रभु को प्रथम इक्षुरस का आहार प्रदान किया । इस आहार के कारण उनके वंश को इक्ष्वाकु नाम देवताओं ने दिया। श्रेयांस राजा का दान वाला दिन जैन इतिहास में अक्षय तृतीया कहलाया । आज भी हजारों जैन भगवान ऋषभदेव की स्मृति में श्रद्धा के अनुसार वर्षी तप करते हैं और वह दीर्घ तपस्या हस्तिनापुर पारणा स्थल पर खोलते हैं ।
हजारों साधु साध्वियों के अलावा लाखों श्रावक-श्राविकाओं को प्रभु ने मोक्षमार्ग बताया। स्वयं भरत चक्रवर्ती के पुत्र मरीचि, जो भिक्षु जीवन से भटक गये थे, उनको प्रभु ने अन्तिम तीर्थंकर घोषित किया।
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत पर हुआ, जिसे आज कैलाश पर्वत कहते हैं ।
भगवान ऋषभदेव को संसार के सभी लोगों ने किसी न किसी रूप में माना है । यहाँ तक कवि सूरदास व गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रंथ की २४ अवतारों की कथा में ऋषभदेव का अर्हत् अवतार की कथा रूप में श्रद्धा से वर्णन किया है।
५. "इह इक्ष्वाकु कुल वंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरूदेव्या नन्दने । महादेवेन ऋषभेण - दस प्रकार धर्म स्वयमेव चीर्णः ।"
२. भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग १, पृष्ठ २८७
३. कल्पसूत्र की भूमिका
४. भारतीय इतिहास की रूपरेखा ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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- ब्रह्माण्डपुराण
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