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आदितीर्थकर भगवान ऋषभदेव
जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर की मान्यता बहुत प्राचीन है। हम इस अध्ययन में ऐतिहासक तीर्थंकरों का वर्णन करेंगे। हमने इस पुस्तक के प्रथम अध्ययन में लिखा था कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का वर्णन भारतीय दर्शन परम्परा में भरा पड़ा है। समस्त वैदिक ग्रंथ, बौद्ध ग्रंथ, सिक्खों का दशम ग्रंथ इसके प्रमाण हैं।
ऋषभदेव जैन मान्यता के अनुसार अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे के उपसंहार काल में उत्पन्न हुए। बाकी तीर्थंकरों और प्रथम तीर्थंकरों में बहुत लम्बा अंतराल है।
वैदिक दृष्टि से ऋषभदेव प्रथम सतयुग के अंत में हुए और राम-कृष्ण के अवतारों से पूर्व हुए। वह आत्म-विद्या के प्रथम पुरस्कर्ता थे। कल्पसूत्र में उन्हें प्रथम राजा, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती माना गया है। वह प्रथम राजा भी थे। ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार वह दस प्रकार के धर्म के प्रवर्तक थे।
श्रीमदभागवत में जैनधर्म की भाँति भगवान ऋषभदेव का वर्णन आया है। श्रीमद्भागवत में बताया है-“वासुदेव ने आठवाँ अवतार नाभि और मरुदेवी के यहाँ धारण किया। वे ऋषभ रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया।
उनके सौ पुत्र थे। प्रथम पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भागवत ने इन्हें महायोगी कहा है। उन्होंने अपने लोगों की पराधीनता समाप्त करने के लिये असि, मसि, कृषि व शिल्प का उपदेश दिया। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनसार उन्होंने स्त्रियों को ६४ व परुषों को ७२ कलायें प्रदान की। फिर वह प्रथम राजा बने। उन्होंने सामाजिक व्यवस्था स्थापित की। लोगों को पशु जीवन से निकालकर उसका वास्तविक रूप बताया। अयोध्या नगरी का निर्माण किया। संसार के लोगों को कर्म करने का उपदेश दिया। जैन परम्परा अनुसार उन्होंने लम्बे समय तक राज्य किया। फिर राज्यों को पुत्रों में विभाजित कर साधु जीवन स्वीकार किया। उनके प्रथम पुत्र भरत व छोटे पुत्र तक्षशिला सम्राट् बाहुबलि को छोड़ सभी साधु बन गये। उनकी दो पुत्रियाँ-ब्राह्मी व सुन्दरी थीं। आपने स्त्री-शिक्षा का सूत्रपात करते हुए ब्राह्मी को लिपिज्ञान दिया। आज भी वह लिपि ब्राह्मी कहलाती है और भारत की यह प्राचीनतम लिपि है। सुन्दरी को उन्होंने गणित की शिक्षा दी।
दो सुपुत्रियों ब्राह्मी व सुन्दरी ने भी पिता व भाई का अनुकरण किया। दोनों पुत्रियों ने साध्वी जीवन स्वीकार किया। प्रथम तीर्थंकर बनकर वे संसार के कोने-कोने तक पहुँचे। उनकी जीवन-गाथा क्रान्तिकारी घटनाओं से भरी पडी है। पर हम यहाँ यह बताने की चेष्टा कर रहे हैं कि भगवान ऋषभदेव संसार की सभ्यताओं में आज भी मान्यवर रहे हैं।
चारों वेद, पुराण उनके गुणगान करते हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त मुद्रायें, चिन्ह सभी जैनधर्म से सबंधित हैं। पुराणों ने आर्हत् धर्म के उपासकों को असुर माना है क्योंकि वे यज्ञों, वेदों व ब्राह्मणों का विरोध करते थे।
भगवान ऋषभदेव की प्रसिद्धि के बारे में आचार्य देवेन्द्र मुनि जी लिखते हैं-"भारत में ही नहीं अपितु संसार में वह कृषि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। कहीं उन्हें वर्षा का देवता माना जाता है, कहीं सूर्य देव का रूप माना जाता है। चीनी त्रिपिटकों में उनका उल्लेख मिलता है। जापानी उनको 'रोकशब' कहते हैं।"
मध्य एशिया, मिस्र और यूनान तथा ऐनेशिया फोनेशिया एवं फणिक लोगों की भाषा में वे 'रेशेफ' कहलाये।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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