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ईश्वर के अवतार लेने का एक मात्र उद्देश्य सृष्टि के चारों ओर जो अधर्म का अंधकार छाया है, उसे नष्ट कर धर्म का प्रकाश, साधुओं का परित्राण, दुष्टों का नाश और धर्म की स्थापना करना है। वैदिक धर्म में कोई भी आत्मा परमात्मा का रूप कभी भी नहीं ले सकती। इसके विपरीत जैनधर्म में साधना का उद्देश्य है राग-द्वेष को छेदन कर १८ पापों से मुक्त हो आत्मा को जन्म-जरा-मरण के दुःखों से मुक्त करना और अरिहंत अवस्था प्राप्त कर केवलज्ञान के धारक बनना।
जैनधर्म की मान्यता के अनुसार मात्र अढाई द्वीप में १५ कर्मभूमियाँ हैं। उनमें एक समय में १७० क्षेत्र हैं, जहाँ तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। एक समय में एक क्षेत्र में सर्वज्ञ अनेक हो सकते हैं, पर एक समय में एक क्षेत्र में तीर्थंकर एक ही होता है। एक समय में अधिक से अधिक १७० तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, ज्यादा नहीं।
तीर्थंकर व सामान्य केवली में मुख्य अन्तर विशिष्ट घटनाओं का है। तीर्थंकर के समान सामान्य केवलियों पर कोई भी घटना घटित नहीं होती। मुक्त अवस्था में सभी जीव सिद्ध बन जाते हैं। आत्मा अजर-अमर हो जाती है। अनन्त काल के लिए उन्हें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति में लीन हो जाना होता है। वहाँ कर्मबंध और कर्मबंध के कारणों का सर्वथा अभाव होने से जीव पुनः संसार में नहीं आता। जैनधर्म का तीर्थंकर ईश्वरीय अवतार नहीं है। मूलतः जैनधर्म अवतारवाद को नहीं मानता। यहाँ शुभ कर्म से प्राप्त तीर्थंकर गोत्र है इसके पीछे कर्म सिद्धांत है। वैदिक अवतारों की मान्यता
. जैनधर्म के तीर्थंकरों की मान्यता का प्रभाव दूसरे धर्मों पर भी पड़ा है। वैदिक धर्म के पुराणों में अवतारवाद के विभिन्न देवताओं के अवतार माने जाते हैं। भागवत पुराणों में अवतारों के तीन विवरण मिलते हैं जो अन्य पुराणों से प्राप्त होने वाले दशावतार परम्परा से पृथक् हैं
वैदिक परम्परा में १०, १६, २२, २४ प्रमुख अवतारों का वर्णन मिलता है। भागवत में कहीं भगवान के असंख्य अवतार माने गये हैं। दशम स्कंध में १२ अवतारों की बात कही गई है। उक्त सूची में आगे चलकर पाँच रात्र वासुदेव के ही पर्याय विभवों की संख्या २४ से बढ़कर ३९ तक हो गई है।
लघु भागवतामृत में यह संख्या २५ तथा सात्वत तंत्र में ४१ से अधिक हो गई है। इन चौबीस अवतारों में मत्स्य, वराह, कूर्म आदि तो अवतार पशु के हैं। हंस पक्षी है। कुछ अवतार पशु व मानव दोनों के मिश्रित रूप है जैसे-नृसिंह व हयग्रीव।
वैदिक परम्परा में जैन परम्परा की तरह अवतार की व्यवस्था का वर्णन नहीं मिलता। इन २४ अवतारों की सूची में भगवान ऋषभदेव व अंतिम अवतार में महात्मा बुद्ध को शामिल किया गया है।
भदन्त बौद्ध भिक्षु का मत है कि “ईसा पूर्व प्रथम या द्वितीय शताब्दी में जैविक बुद्ध का उल्लेख हो चुका था।" बौद्धों में भी वैदिक धर्म की तरह असंख्य अवतारों की कल्पना की गई है। पर आगे चलकर यह संख्या ५, ७, २४ और ३६ तक सीमित हो गई। जैनधर्म में २४ तीर्थंकरों की मान्यता एक है चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर इनमें कोई अंतर नहीं।
-महावीर : एक अनुशीलन पृ. २०-२१ (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि के आधार पर)
१. दिगम्बर परम्परा सोलह स्वप्न मानती है--
(१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) माला, (६) शशि, (७) सूर्य, (८) कुम्भद्धिक, (९) मेषयुगल, (१०) सागर, (११) सरोवर, (१२) सिंहासन, (१३) देव विमान, (१४) नाग विमान, (१५) रत्नराशि (१६) निर्धूम अग्नि।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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