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________________ हमने यहाँ तीर्थंकरों के बारे में मोटी-मोटी बातें बताई हैं जो जैनधर्म की प्राचीन मान्यताओं पर आधारित हैं, आस्था (सम्यक्त्व) के आधार हैं। इसी कारण जैन तीर्थंकर साकार परमात्मा या वीतराग के रूप में श्रद्धा के केन्द्र हैं। तीर्थंकर परमात्मा १८ दोषों से रहित होते हैं। वे राग-द्वेष के बन्धनों को तोड़ कर्म जंजीरों से मुक्त होते हैं। कर्मबद्ध अवस्था में पड़ा जीव संसारी है और दुःखी है। पर कर्म जंजीरें टूटते ही जन्म-मरण की परम्परा हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। तीर्थंकर शाश्वत स्थान सिद्धशिला को प्राप्त करते हैं। यह तीर्थंकर संसार के जीवों के लिए आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं। जैनधर्म में भक्ति का मूल उद्देश्य-प्रभु के गुणों का चिन्तवन करना है। आचार्य महाप्रज्ञ की भाषा में "हर तीर्थंकर, तीर्थंकर बनने से पहले अपने से पहले हुए तीर्थंकरों की भक्ति करता है। हर सिद्ध, सिद्धत्व से पहले सिद्धों की भक्ति करता है। यह गुण सामान्य अरिहंत केवलियों से तीर्थंकरों को भिन्न करते हैं।' तीर्थंकर भगवान अठारह दोषरहित होते हैं (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) वीर्यान्तराय, (४) भोगान्तराय, (५) उपभोगान्तराय, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) सप्तभयमुक्त, (१०) जुगुप्सा (घृणा), (११) शोक, (१२) काम, (१३) मिथ्याव, (१४) अज्ञान, (१५) निद्रा, (१६) अविरति, (१७) राग, (१८) द्वेष। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में तीर्थंकरों की संख्या साध्वी उमेश जी शास्त्री ने तीर्थंकर पुस्तक में तीर्थकरों की उत्पत्ति के बारे में इस प्रकार लिखा है (पृष्ठ १०-११) "भरतक्षेत्रापेक्षा से तीर्थंकर सदैव २४ ही होते हैं। तीसरे आरे में प्रथम तीर्थंकर और चौथे आरे में २३ तीर्थंकर होते हैं। यह अटल नियम है। भरतक्षेत्र की अपेक्षा २४ की संख्या शाश्वत है। महाविदेह क्षेत्र में विहरमान में रूप २० तीर्थंकर सदैव विद्यमान रहते हैं। वहाँ हमेशा चौथा काल वर्तता है। १५ कर्मभूमियों में तीर्थंकर भगवान होते हैं। कर्मभूमियों की अपेक्षा एक समय में जघन्य २० तीर्थंकर और उत्कृष्ट १६० या १७० तीर्थंकर हो सकते हैं। जैसे पाँच महाविदेह क्षेत्र और हर एक क्षेत्र में ४-४ तीर्थंकर पाये जा सकते हैं। योग ५ x ४ = २० तीर्थंकर हुए। उत्कृष्ट १६०। जैसे पाँच विदेह क्षेत्रों में ३२-३२ विजय हैं। ३२ x ५ = १६० विजयों में एक-एक तीर्थंकर होते हैं यों १६० तीर्थंकर हुए। पाँच भरत पाँच ऐरवत इन दस क्षेत्रों में भी १० तीर्थंकर हुए तो इस अपेक्षा से १७० तीर्थंकर होते हैं। ___ श्री जम्बूद्वीप गणितशास्त्र में किसी अपेक्षा से जघन्य ४ तीर्थंकर और उत्कृष्ट ३४ तीर्थंकर कहे हैं जैसे ३२ विजयों में एक एक यों ३२ हुए और भरत-ऐरवत में एक-एक यों ३४ तीर्थंकर बतलाये हैं। अवतारवाद व उत्तारवाद तीर्थंकर किसी देवी-देवता के अवतार नहीं होते। वे तो सामान्य मनुष्य होते हैं, जो पूर्वजन्मों की विशिष्ट साधना-आराधना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म गोत्र का बंध करते हैं। तीर्थंकर न किसी को शाप देते हैं न आशीर्वाद। यह उनकी सदेह वीतराग अवस्था की संस्कृति है। इसके विपरीत वैदिक परम्परा अवतारवाद में विश्वास रखती है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है "ईश्वर अज, अनन्त और परमात्मा होने पर भी अपनी अनन्तता को अपनी माया-शक्ति से संकुचित कर शरीर धारण करता है।" अवतारवाद का सीधा अर्थ है-ईश्वर का मानव देह में धरती पर प्रकट होना। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १३ १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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