________________
पन्द्रह अतिशय केवलज्ञान के पश्चात्
(१) तीर्थंकर अरिहंत के श्वासोच्छ्वास में कमल - जैसी सुगन्ध आती है।
(२) तीर्थंकर अरिहंत जब विहार करते हैं तो आकाश में धर्म-चक्र चलता है, जहाँ वे ठहरते हैं धर्म चक्र भी ठहर जाता है, पुनः विहार के पश्चात् धर्म चक्र स्वयं चलने लगता है।
(३) तीर्थंकर अरिहंत के शीर्ष पर तीन छत्र हमेशा होते हैं जिनकी झालरें मोती की बनी होती हैं।
(४) तीर्थंकर अरिहंत के दोनों ओर इन्द्रों द्वारा रत्नजड़ित डण्डियों वाले चांवर ढुलाये जाते हैं।
(५) वह स्फटिक मण्डित, जड़ित, निर्मल, देदीप्यमान सिंहासन पर विराजे दृष्टिगोचर होते हैं । (६) उनके आगे झण्डियों से घिरी इन्द्रध्वजा दिखाई देती है जो रत्नजड़ित होती है।
(७) वह अपने शरीर से बारह गुणा ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे विराजते हैं।
(८) सूर्य से भी अधिक तेजस्वी आभामण्डल तीर्थंकर के पीछे दृष्टिगोचर होता है ।
(९) तीर्थंकर अरिहंत जहाँ-जहाँ चलते हैं, चरण-कमल रखते हैं वहाँ खड्डे, टोये, टीले सभी सम हो जाते हैं।
(१०) तीर्थंकर अरिहंत जब चलते हैं धरती पर फैले काँटे स्वयमेव उल्टे हो जाते हैं ।
(११) तीर्थंकर अरिहंत जहाँ होते हैं वहाँ ऋतुएँ स्वयमेव सुहावनी, अनुकूल हो जाती हैं ।
(१२) तीर्थंकर अरिहंत के आगे चारों ओर एक योजन तक मन्द मन्द शीतल वायु चलती है और अशुचि को दूर करती है।
(१३) तीर्थंकर के चारों ओर बारीक-बारीक सुगंधित जल की बूँदाबाँदी व पुष्पवृष्टि होती है ।
(१४) यह देवकृत पुष्पवृष्टि प्रभु (१५) मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का सद्भाव पाया जाता है।
(१६) अमनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श नहीं रहता ।
(१७) तीर्थकर भगवान के चारों ओर एक-एक योजन तक बैठी परिषद् संलग्न होकर प्रभु की अमृतवाणी उपदेशामृत का पान करती है।
(१८) तीर्थंकर प्रभु अर्धमागधी प्राकृत
में उपदेश देते हैं।
(१९) आर्य-अनार्य मनुष्य, पशु-पक्षी, सभी प्राणी इस उपदेश को अपनी-अपनी वाणी के अनुसार समझते हैं।
(२०) तीर्थंकर के समवसरण में सभी जीव-जन्तु अपना परस्पर वैर - विरोध भूल जाते हैं। उनके दर्शन मात्र से स्वाभाविक वैर या पूर्वभव का वैर समाप्त हो जाता है। शेर व बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं।
(२१) दूसरे धर्मों को मानने वाले तीर्थंकरों के दरबार में हठ व पूर्वाग्रह छोड़ प्रभु-भक्त बन जाते हैं।
(२२) उनके दरबार में कोई किसी तरह की चर्चा नहीं करता क्योंकि उन्हें हर प्रश्न का उत्तर बिना पूछे प्रभु द्वारा प्राप्त होता है।
(२३) तीर्थंकर परमात्मा जहाँ होते हैं वहाँ २५ - २५ योजन तक चारों ओर ईति, भीति आदि उपद्रव नहीं होते । (२४) तीर्थंकर अरिहंत जहाँ विराजते हैं वहाँ महामारी का आग का फैलाव नहीं होता ।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
१०
घुटनों तक होती है। पुष्पों के डण्ठलों का कोमल मुख ऊपर आ जाता है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org