SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब तीर्थंकर का जन्म होता है, तब देव तीर्थंकर की माता को प्रणाम करके तीर्थंकर रूप शिशु को सुमेरु पर्वत पर स्नान के लिए ले जाते हैं, जहाँ देव-देवियाँ जन्म-महोत्सव मनाते हैं। इस प्रकार उनकी दीक्षा महोत्सव देव व मनुष्य अपनी-अपनी परम्परानुसार मनाते हैं। केवलज्ञान होने के पश्चात् उनकी धर्मसभा की अनुपम रचना देवता मिलकर करते हैं, जिसे जैन परिभाषा में समवसरण कहते हैं। तीर्थंकरों के निर्वाण होने पर उनका अग्नि-संस्कार भी सभी देव मिलकर करते हैं। तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं। वे प्रश्न करने वाले के हर प्रश्न का उत्तर बिना पूछे देते हैं। वे जन-कल्याण के लिए धर्मोपदेश करते हैं। वे स्वयं तरते हैं तथा औरों को तारने में सक्षम होते हैं। वे स्वयंबुद्ध, पुरुषोत्तम, शिव, अरिहंत, केवली, जिन कहलाते हैं। तीर्थंकरों की संख्या तो निश्चित है पर सामान्य केवली, जिन्हें हम गुणों की दृष्टि से अरिहंत श्रेणी में रखते हैं, उनकी संख्या निश्चित नहीं है। जितनी आत्मायें सृष्टि में हैं सबमें परमात्मा बनने की शक्ति है। पर तीर्थंकर नामकर्म उदय से यह शक्ति तीर्थंकर को प्राप्त होती है। तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानक तीर्थंकर नामकर्म गोत्र जिन कारणों से उपार्जन होता है उन्हें २० स्थानक कहते हैं। इन्हीं की आराधना किसी जन्म में तीर्थंकर का जीव लम्बे समय तक करके तीर्थंकर नामकर्म गोत्र बाँधता है। इन बोलों का विवेचन इस प्रकार है (१) अरिहंत भक्ति, (२) सिद्ध भक्ति, (३) गुरु भक्ति, (४) प्रवचन भक्ति, (५) श्रुतज्ञान में स्थविर की भक्ति, (६) सूत्र बहुश्रुत, अर्थ बहुश्रुत और सूत्र व अर्थ दोनों के जानकारों की भक्ति, (७) बाह्य व आभ्यन्तर तप के धारक मुनियों की सेवा भक्ति, (८) निरन्तर ज्ञानोपयोग के रसिक बनने से, (९) शुद्ध सम्यक्त्व धारण करने से, (१०) ज्ञान आदि प्राप्त कर मन, वचन, काया से विनय करने से, (११) शुद्ध भाव से प्रतिक्रमण करने से, (१२) मूलगुण और उत्तरगुणों का पालन करने से, (१३) शुभ ध्यान, (१४) बाह्य व आभ्यन्तर तप करने से, (१५) साधु-महात्मा को सुपात्रदान देने से, (१६) आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, रोगी, नवदीक्षित, सहधर्मी, कुल, गण और संघ की सेवा भक्ति से, (१७) गुरुजनों की भक्ति से, (१८) नया ज्ञान पढ़ने, चिन्तन करने के अभ्यास से, (१९) श्रुतज्ञान की भक्ति से, (२०) प्रवचन प्रभावना से। चौंतीस अतिशय इन्हीं पूर्वजन्मों के शुभ कर्मों से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है। तीर्थंकरत्व में प्रमुख चौंतीस अतिशय होते हैं। इनमें से कुछ जन्म के समय से ही होते हैं। कुछ केवलज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होते हैं। कुछ स्वाभाविक या देवकृत होते हैं। जन्मजात अतिशय (१) तीर्थंकर भगवान के शरीर के बाल न बढ़ते हैं, न घटते हैं बल्कि व्यवस्थित रहते हैं। (२) तीर्थंकर भगवान के शरीर पर कभी मैल नहीं जमता। (३) तीर्थंकर भगवान का आहार व नीहार गुप्त होता है। (४) तीर्थंकर अरिहंत का रक्त सफेद रंग का होता है। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy