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जैनधर्म की तीर्थकर परम्परा : एक विश्लेषण
जैनधर्म में महामंत्र नवकार के पाँच पदों में पहला पद ' णमो अरिहंताणं' है। अरिहंत में सामान्य केवली व तीर्थंकर केवली दोनों आ जाते हैं । तीर्थंकर अरिहंतों के जीवन में कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो सामान्य केवलियों में नहीं होतीं । आत्म-ज्ञान या केवलज्ञान की दृष्टि से दोनों एक होते हैं। पर तीर्थंकरों की परम्परा शाश्वत है। तीर्थंकर का यह काल- विभाजन मात्र जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रहता है । महाविदेह क्षेत्रों में २० विहरमान तीर्थंकर परमात्मा हमेशा विद्यमान रहते हैं और रहेंगे। वहाँ सामान्य व्यक्ति नहीं पहुँच सकता । पर विशिष्ट ज्ञानी अपने तप के प्रभाव से आज भी तीर्थंकरों के दर्शन कर सकते हैं। हमारे इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अनन्तकाल से इसी प्रकार तीर्थंकर जन्म लेते रहे हैं, धर्म-प्रचार करते रहे हैं, निर्वाण प्राप्त करते रहे हैं और भविष्य में करते रहेंगे ।
तीर्थंकर नामकर्म के उदय से जीव को तीर्थंकर गोत्र की प्राप्ति होती है। जो श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविकारूपी धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। इस धर्मरूपी तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर होते हैं। जैनधर्म का कोई संस्थापक नहीं है। यह आर्हतों का धर्म है, जिनधर्म है, श्रमण धर्म है, निर्ग्रन्थ धर्म है । "जैन" शब्द का अर्थ है जीतने वाला। आत्मा के कषाय, दोषों को जीतने वाला जैन है। जैनधर्म अनादि धर्म है क्योंकि तीर्थंकर हर काल में किसी न किसी क्षेत्र में विद्यमान रहते हैं। तीर्थंकर परम्परा का अनुक्रम हमारे भरतक्षेत्र में ही होता है । महाविदेह में तीर्थंकर सदैव विद्यमान रहते हैं।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में २४ तीर्थंकर जन्म लेते हैं। तीर्थंकर का जन्म क्षत्रियकुल में होता है । वे कभी दरिद्र कुल में जन्म नहीं लेते। जन्म के समय ही वे तीन ज्ञान के धारक होते हैं-मति, श्रुत व अवधि | तीर्थंकर के जन्म से पहले उनकी माता १४ स्वप्न देखती हैं
(१) हाथी, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) ध्वजा, (९) कलश, (१०) पद्म सरोवर, (११) समुद्र, (१२) रत्नराशि (१३) विमान, (१४) निर्धूम अग्नि ।
तीर्थंकर अरिहंत के पाँच कल्याणक देवों व मनुष्यों द्वारा मनाये जाते हैं - (१) च्यवन-कल्याणक, (२) जन्म-कल्याणक, (३) दीक्षा - कल्याणक, (४) केवलज्ञान-कल्याणक, (५) निर्वाण-कल्याणक । तीर्थंकर निश्चय, बिना गुरु के दीक्षा ग्रहण करते हैं फिर अपनी शक्ति से केवलज्ञान प्राप्त कर पूर्व तीर्थंकरों की परम्परा को जाग्रत करते हैं । केवलज्ञान के बल से प्रश्नों के उत्तर सूक्ष्म रूप में देने में वे समर्थ होते हैं। वे चार घातिया कर्मों का पूर्ण नाश करते हैं । ये कर्म है - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ।
दीक्षा से पहले तीर्थंकर एक वर्ष तक दान देते हैं। तीर्थंकर का जीव धरती पर तीर्थंकर अरिहंत कहलाता है। निर्वाण के बाद वे निराकार परमात्मा के रूप में सिद्ध गति प्राप्त करते हैं। तीर्थंकर का जीव अवश्यमेव मुक्ति को जाता है। तीर्थंकर ८ प्रतिहार्य उनके साथ चलते हैं। इसके अतिरिक्त ३४ अतिशयों के वे स्वामी होते हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है
अष्ट प्रतिहार्य - अष्ट प्रतिहार्य जो केवलज्ञान के बाद उत्पन्न होते हैं वे हैं - (१) अशोक वृक्ष, (२) देव - दुन्दुभि, (३) पुष्प वृष्टि, (४) धर्म-चक्र, (५) तीन छत्र, (६) स्वर्णमय सिंहासन, (७) आभामण्डल, (८) चामरधारी इन्द्र ।
ये अष्ट प्रतिहार्यं तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होते ही घटित होते हैं और निर्वाण अवस्था तक साथ रहते हैं। इन प्रतिहार्यों के प्रभाव से तीर्थंकर की धर्मसभा के आसपास सुख-शान्ति रहती है ।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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