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________________ यह ६ अवसर्पिणी के विभाग हैं। उत्सर्पिणी के भी ६ विभाग इस अनुक्रम से होते हैं - (१) दुषमा - दुषमा (२) दुषमा, (३) दुषमा- सुषमा, (४) सुषमा-दुषमा, (५) सुषमा, (६) एकान्त सुषमा । अवसर्पिणी काल आज हम अवसर्पिणी के पाँचवें दुषमा आरे में जी रहे हैं । हमारे युग का जीवन-क्रम एकान्त सुषमा से शुरू होता । उस समय भूमि स्निग्ध (चिकनी ) थी। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श मनोज्ञ था । मिट्टी की मिठास आज की चीनी से अनन्त गुणा थी । कर्मभूमि थी, पर कर्मयुग शुरू नहीं हुआ था । पदार्थ अतिस्निग्ध थे । इसलिए उस जमाने के लोग तीन दिन में थोड़ी वनस्पति खाते और तृप्त हो जाते थे, विकार कम थे। आयु लम्बी थी । वे लोग ३ पल्योपम तक जीते थे। ३ कोस का उच्च शरीर था। शान्त व सन्तुष्ट होते थे। ऐसा समय ४ करोड़ सागर का बीता । तीन क्रोड़ाक्रोड़ी का दूसरा सुखमय भाग शुरू हुआ। इसमें भोजन दो दिन के बाद होने लगा । आयु २ पल्य, ऊँचाई २ कोस रह गई । पदार्थों में स्निग्धता घटती गई। तीसरे सुख - दुःखमय काल विभाग में और कमी आई। भोजन एक दिन बाद होने लगा। जीवन का कालमान १ पल्य और ऊँचाई १ कोस रह गई । इस युग की काल मर्यादा थी एक क्रोड़ाक्रोड़ सागर । इसके अन्तिम चरण में पदार्थों की स्निग्धता में भी कमी होती गई तब कृत्रिम व्यवस्था आई और इसी दौरान कुलकर व्यवस्था का जन्म हुआ । यह कर्म-युग के शैशवकाल की कहानी है। समाज संगठन अभी हुआ नहीं था । यौगलिक व्यवस्था चल रही थी । एक जोड़ा ही सब कुछ था । न कुल था, न वर्ग और न जाति । समाज और राज्य की बात तो बहुत दूर थी । जनसंख्या कम थी। माता-पिता की मौत से दो या तीन मास पहले एक युगल जन्म लेता और बड़ा होकर दम्पति का रूप ले लेता । विवाह संस्था का उदय नहीं हुआ था । जीवन की आवश्यकताएँ सीमित थी । न खेती होती थी, न कपड़ा बनता था और न मकान बनते थे। उनके भोजन व निवास के साधन कल्पवृक्ष थे। कला-विज्ञान का कोई नाम नहीं जानता था । कोई राजा नहीं थे, कोई प्रजा नहीं थी । कोई भी सांसारिक सम्बन्ध नहीं था । धर्म-कर्म नहीं था। लोग सहज धार्मिक थे। सभी चुगली, निन्दा, आरोप से दूर थे । लड़ना-झगड़ना वे जानते तक नहीं थे। शस्त्र व शास्त्र से अनभिज्ञ थे। हर प्रकार की बुराई से ये लोग मुक्त 1 तीसरा आरा बीता। चौथे आरे में सभी वर्ण, गन्ध, स्पर्श, आयु घटने लगे। कल्पवृक्ष क्षीण होने लगे । यौगलिक व्यवस्था टूटने लगी, समस्याएँ बढ़ीं। साधन कम हुए। लोग समस्याओं के कारण झगड़ने लगे। अपराध और अव्यवस्था के कारण कुलकर आये। जिन्होंने दण्ड नीति को जन्म दिया। केवल तीन दण्ड नीतियाँ थीं- हाकार, माकार, फिर धिक्कार । इस प्रकार जैनधर्म में सृष्टि को विकासवादी सिद्धान्त से समझाया गया है। यह क्रम भरत क्षेत्र में इसी प्रकार चलता रहता है। इसी व्यवस्था ने कुल को जन्म दिया जिसके बारे में हम पहले बतला चुके हैं। उत्सर्पिणी काल का आरम्भ सुषमा से होता है, अन्त दुषमा - दुषमा तक होता है। Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only ७ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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