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________________ जैन मान्यताओं के आरों का संक्षिप्त वर्णन : सृष्टि विकास की कहानी जैन मान्यताओं के संदर्भ में डॉ. प्रेमसुमन जैन का कथन ध्यान देने योग्य है । वह कहते हैं “जैन मान्यता के अनुसार सृष्टि शाश्वत है। सुख से दुःख की ओर तथा दुःख से सुख की ओर विश्व का क्रमशः अवसर्पण व उत्सर्पण होता रहता है । अवसर्पण की आदि सभ्यता अत्यन्त सरल और सहज थी। किसी तरह की कौटुम्बिक व्यवस्था न होने के कारण कोई उत्तरदायित्व नहीं था, अतः कोई व्यवस्था नहीं थी। जैन परम्परा में ऐसी मान्यता है कि उस समय जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती थी । प्रकृति और मानवीय तत्त्वों का यह ऐसे सम्मिश्रण का युग था जहाँ धर्म-साधना पाप-पुण्य, ऊँच-नीच आदि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियों का अस्तित्त्व नहीं था। जैन पुराणकारों ने ऐसी परिस्थिति के युग को भोग - भूमि व्यवस्था का युग कहा है। किन्तु अवसर्पिणी काल-चक्र का दूसरा और तीसरा विभाग- क्रमशः व्यतीत हुआ तो काल - प्रभाव से सभी बातें हासोन्मुख होने लगीं। कल्पवृक्षों को लेकर छीनाझपटी होने लगी। इसलिए इस असुरक्षा की स्थिति ने सुरक्षा और सहयोग का आह्वान किया। इससे सामूहिक व्यवस्था प्रतिफलित हुई, जिसे जैन साहित्य में 'कुल' नाम दिया गया और जिसने इस व्यवस्था का श्रीगणेश किया उसे 'कुलकर' कहा गया । जैन परम्परा में इस तरह के १४ कुलकरों की मान्यता है । प्रत्येक कुलकर ने व्यवस्था को गति प्रदान की । अन्तिम कुलकर नाभि थे। इनके समय तक विभाजन की व्यवस्था के साथ-साथ दण्ड-व्यवस्था का भी प्रारम्भ हो चुका था। समाज में केवल स्त्री-पुरुष युगल ही क्रमशः उत्पन्न होते थे । -महावीर : एक अनुशीलन (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी, पृष्ठ १५-१६ ) इस प्रकार अन्तिम कुलकर नाभि को वैदिक परम्परा ने 'मनु' के रूप में स्वीकार किया है। उन्हीं के सुपुत्र प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए। जैन परम्परा के अनुसार आरों का विभाजन इस प्रकार किया गया है। इस संदर्भ में मुनि श्री नथमल ( महाप्रज्ञ) जी अपने 'जैनदर्शन के मौलिक तत्त्व' में कहते हैं- "इस काल-विभाग को हम क्रम-हासवाद या क्रम-विकासवाद का नाम दे सकते हैं। हर काल में उन्नति - अवनति का दौर चलता रहता है। अवसर्पिणी काल में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान, आयुष्य, शरीर, सुख आदि पदार्थ की क्रमशः अवनति होती है ।" उत्सर्पिणी में उक्त पदार्थों की उन्नति होती है पर वह अवनति और उन्नति समूहापेक्षा से है, व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं । अवसर्पिणी की चरम सीमा ही उत्सर्पिणी का प्रारम्भ है और उत्सर्पिणी का अन्त अवसर्पिणी का जन्म है । क्रमशः यह काल-चक्र चलता रहता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के ६--६ भाग होते हैं - ( १ ) एकान्त सुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषमा - दुषमा, (४) दुषमा- सुषमा, (५) दुषमा, (६) दुषमा-दुषमा । सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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