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________________ सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त कायोत्सर्ग स्थित योगी की प्रतिमा, स्वस्तिक चिह्न जैनधर्म की प्राचीनता का मुँहबोलता प्रमाण है। डॉ. जैकोबी का समर्थन डॉ. राधाकृष्ण, डॉ. स्टीवेन्सन और श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने भी किया है। जैनधर्म के प्राचीन नाम वेदों, पुराणों में केशी, वातरशना, परमहंस, व्रात्य, अर्हन्, आर्हत, श्रमण शब्द जैनधर्म के साधुओं के लिए प्रयुक्त हुए हैं। ऋग्वेद में 'अर्हन्' को विश्व की रक्षा करने वाला कहा गया है।' शतपथ ब्राह्मण में "अर्हन्" का आह्वान किया गया है और उन्हें कई स्थलों पर श्रेष्ठ कहा गया है । २ श्रुतकेवली भद्रबाहु ने कल्पसूत्र में अरिष्टनेमि सहित सभी तीर्थंकरों के नाम के साथ "अर्हत्" विशेषण प्रयोग किया है । ३ इसी तरह ऋषिभाषित सूत्र में प्रत्येकबुद्ध को "अर्हत्" कहा गया है । ४ पद्म-पुराण' और विष्णु-पुराण में जैनधर्म के लिए "अर्हत्" धर्म शब्द प्रयुक्त किया गया है। भगवान महावीर के समय में जैन के लिये “निर्ग्रन्थ " शब्द का व्यवहार होता था । इस बात की पुष्टि जैन तथा बौद्ध साहित्य में हुई है। अशोक के शिलालेखों में “निग्गंठ" शब्द मिलता है। वैदिक ग्रन्थों में भी “निर्ग्रन्थ" शब्द उपलब्ध है। सातवीं शती में बंगाल में "निर्ग्रन्थ " सम्प्रदाय प्रभावशाली होने के काफी प्रमाण हैं । दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांगसूत्रों में जिनशासन, जिनमार्ग, जिनवचन शब्दों का प्रयोग मिलता है। सर्वप्रथम जैन शब्द का प्रयोग जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यकभाष्य में प्राप्त है ।" उसके पश्चात् मत्स्यपुराण में जिनधर्म व देवी भागवत हनुमान में जैनधर्म का उल्लेख हुआ है। जैनधर्म किसी व्यक्ति व देश के नाम से सम्बन्धित नहीं है। यह धर्म अर्हतों का धर्म है । यही जैनधर्म या जिनधर्म है। जैनधर्म में कोई भी व्यक्ति मानव से महामानव बन सकता है। आर्हत धर्म को पदम पुराण में सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा है, जिसके संस्थापक ऋषभदेव थे। आर्हत लोग यज्ञों में विश्वास कर कर्मबंध और कर्मनिर्जरा को मानते थे। 1 १. ऋग्वेद २/३३/१०, २/३/१/३, ७/१४/२८, १०/२/२, ९९/७/१०/८५/४ २. ३/४/१/३-६, तै. २/४/६/५, तै. आ. ४/५/७, ५/४/१० ३. कल्पसूत्र देवेन्द्रमुनि सम्पादित १६१ - १६२ ४. ऋषिभाषित १/ २६ ५. पद्मपुराण १३/३५ ६. विष्णुपुराण ३/१८/२ ७. कन्थोकोपीनोत्तरा सद्वादीआ येणो से यथाजातरूप धरा निर्ग्रन्थ निष्परिग्रह इति संक्तीतुतियं तेरिरीय आरणक भाग २ वृ. ७७८ १०/६६ सायणभाष्य भाग २ / ७-७८ ८. ११७ गाथा - १० पद, सूक्ति १०४५-१०४६ । Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only ५ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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