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धर्म का अन्त नहीं होता। समय-समय पर हर क्षेत्र में तीर्थंकर जन्म लेते रहते हैं। तीर्थकर अपने क्षेत्र और काल में धर्म का संदेश देते हैं।
जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में हम सब जीवन यापन करते हैं। इस क्षेत्र में अनेक तीर्थंकरों ने समय-समय पर जिनधर्म का उपदेश दिया। विदेह क्षेत्र में २० विहरमान तीर्थकर सदैव विद्यमान रहते हैं। जैनधर्म : एक स्वतन्त्र व प्राचीन धर्म
स्व. आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. अपने ग्रन्थ “महावीर : एक अनुशीलन" पृष्ठ ७ पर लिखते हैं
"यह साधिकार कहा जा सकता है कि जैनधर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। यह न तो वैदिक धर्म की शाखा है, न बौद्ध धर्म की। जैनधर्म एक सर्व स्वतन्त्र धर्म है। यह सत्य है कि जैनधर्म शब्द का प्रयोग वेदों, त्रिपिटकों व जैन आगमों में नहीं मिलता, जिसके कारण तथा साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण कितने ही इतिहासकारों ने जैनधर्म को अर्वाचीन मानने की भयंकर भूल की है। हमें उनके ऐतिहासिक ज्ञान पर तरस आता है।"
अपनी बात के प्रमाण में वह श्री लक्ष्मण शास्त्री जोशी का प्रमाण देते हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक "वैदिक संस्कृति का विकास' में लिखा है-"जैन व बौद्ध धर्म वैदिक संस्कृति की ही शाखाएँ हैं । यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है इन शाखाओं की वेद विरोधी कल्पना। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीन अन्तिम कल्पनाएँ-कर्मविपाक, संसार का बंध और मोक्ष या मुक्ति अन्ततोगत्वा वैदिक ही हैं।"
पर शास्त्री जी की ये बातें मूलतः गलत हैं। वेदों में तो आत्मा और मोक्ष की कल्पना नहीं। इस संदर्भ में ए. ए. मैक्डोनेल्ड का मत है-“पनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में संकेत नहीं मिलता।" पर एक ब्राह्मण ग्रन्थ में यह उक्ति मिलती है- “जो लोग विधिवत् संस्कार आदि नहीं करते वह मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते हैं।"
वैदिक संस्कृति के तीन मूल तत्त्व हैं-यज्ञ, ब्राह्मण और वर्ण-व्यवस्था। तीनों का जैन व बौद्धों ने विरोध किया है।
डॉ. लासेन ने बुद्ध और महावीर को एक माना है क्योंकि जैन और बौद्ध परम्परा की मान्यताओं में अनेक समानताएँ हैं। प्रो. वेबर ने जैनधर्म को बौद्ध धर्म की शाखा बताया है। पर इन सभी गलत धारणाओं का अन्त करने वाले जर्मन के विद्वान् प्रो. हर्मन जैकोबी ने जैन व बौद्ध आगमों के आधार पर, तर्कों से सिद्ध किया-“जैन और बौद्ध दोनों स्वतन्त्र धर्म हैं। इतना ही नहीं बल्कि जैनधर्म बौद्ध धर्म से पुराना भी है। ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान महावीर इसके
अन्तिम प्रचारक (उन्नायक) थे। उनसे २५० वर्ष पहले काशी नरेश राजा अश्वसेन व वामादेवी के पुत्र भगवान पार्श्वनाथ हो चुके थे, जिनका निर्वाण ई. पू. ७७७ पूर्व हुआ था।"
इस तरह प्रो. जैकोबी के बाद किसी भी विद्वान् ने जैनधर्म बौद्धधर्म को एक बताने का साहस नहीं किया। किन्तु उनकी शिष्य परम्परा के विद्वानों ने बौद्ध ग्रन्थों के संदर्भ से भगवान महावीर का वर्णन प्रस्तुत किया। बौद्ध ग्रन्थों में भगवान पार्श्वनाथ के चातुर्याम का वर्णन इस बात को सिद्ध करता है कि जैनधर्म महात्मा बुद्ध से पहले संसार में थास्वयं बुद्ध जीवन के आरम्भ में इस परम्परा में दीक्षित हुए थे। उनके चाचा वप्य निर्ग्रन्थ परम्परा को मानते थे।
प्रो. हर्मन जैकोबी ने आगे लिखा है-"इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को ही जैनधर्म का संस्थापक मानने में एक मत है। इस मान्यता में सत्य की संभावना है।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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