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श्रमण संस्कृति की रूपरेखा
संसार में एशिया महाद्वीप बहुत से धर्मों, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की जन्म भूमि है। एशिया महाद्वीप में भारतवर्ष ही वह पुण्य धरा है, जिसे संसार के चार धर्मों को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त है। ये चार धर्म हैं - (१) वैदिक धर्म (२) जैनधर्म (३) बौद्ध धर्म तथा (४) सिक्ख धर्म ।
प्राचीन काल से ही इस धरा पर एक ऐसी संस्कृति पनपी, जो आर्यों के आगमन से पहले इस धरा पर स्थापित हो चुकी थी। इस संस्कृति के संस्थापक व्रात्य, श्रमण अर्हत्, अर्ह व परमहंस थे । इसका वर्णन संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद में ससम्मान हुआ है। ये लोग तपस्या में विश्वास रखते थे । जाति-पाँति, अस्पृश्यता, यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड, पशुबलि के परम विरोधी थे । ये वर्ण-व्यवस्था में भी विश्वास नहीं रखते थे । तपस्या के अतिरिक्त ये लोग न तो वेद को मानते थे, न ही ब्राह्मण संस्कृति द्वारा स्वीकार किसी अन्य ग्रन्थ को मानते थे । इन लोगों की अपनी परम्परा थी । इनके दो वर्ग थे- (१) त्यागी श्रमण ( महाव्रती), (२) तथा उपासक श्रावक (अणुव्रती) वर्ग । श्रमण आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, सृष्टि, स्वर्ग, नरक व मोक्ष के बारे में स्वतन्त्र विचारधारा रखते थे । तपस्या, ध्यान द्वारा यह वर्ग आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करता था ।
इतिहासकारों ने इस जाति की विचारधारा को श्रमण संस्कृति का नाम दिया है, जिनके नेता प्रथम धर्म - उन्नायक विश्व को कर्म का उपदेश देने वाले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे । ऋषभदेव का वर्णन ऋग्वेद के अतिरिक्त भागवतपुराण श्रीमद् आदि में बहुत ही विस्तार से आया है। इस जाति के कुछ चिह्न दक्षिण भारत की द्राविड़ जाति में देखे जाते हैं। आर्यों का इनसे प्रथम संघर्ष गंगा-यमुना के किनारे तक हुआ। फिर आर्यों ने इनकी धर्म-संस्कृति को अपनाना शुरू किया। इसी कारण से भगवान ऋषभ को विष्णु व शिव के अवतारों में शामिल कर और इन्हें अपने ढंग
प्रस्तुत किया। भगवान ऋषभदेव ने मानव जाति को स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया। उन्होंने पुरुष को ७२ कलाएँ व स्त्रियों को ६४ कलाएँ प्रदान कर नई सभ्यता को जन्म दिया। इस प्रकार श्रमण संस्कृति में ऋषि व कृषि दोनों साथ-साथ चले। इसके विपरीत आर्य लोग घुमक्कड़ जाति के थे । वह कबीलों में रहते थे । बहुदेववाद में विश्वास करते थे । आत्मा, परमात्मा व पुनर्जन्म के बारे में आर्यों की मान्यता तब तक स्पष्ट न हो सकी थी। इसी कारण वैदिक संस्कृति में कहीं भी किसी स्तर पर एकरूपता नहीं है। वैदिक संस्कृति एक तरह से ब्राह्मणवाद, यज्ञ, पशुबलि, जातिवाद में विश्वास करती है। वहीं श्रमण संस्कृति इन बातों का विरोध करती है। वैदिक संस्कृति ने षड्दर्शन की दार्शनिक परम्परा को जन्म दिया। फिर इसी परम्परा में आगे चलकर अवतारवाद के माध्यम से पुराणों द्वारा ब्राह्मणवाद का खूब प्रसार हुआ । महाभारत, रामायण से लेकर भक्ति परम्परा तक इस धारा की बहुत-सी शाखायें फूटी और विकास को प्राप्त हुईं।
श्रमण संस्कृति के प्राचीन पाँच रूप माने गये हैं- (१) जैन (निर्ग्रन्थ), (२) शाक्य (बौद्ध), (३) आजीवक नियतिवादी, (४) गेरुक, तथा (५) तापस। पहले दो भाग आज भी जैन व बौद्ध धर्म के नाम से जाने जाते हैं । अन्तिम तीन रूप वैदिक संस्कृति में घुल-मिल गये । श्रमण संस्कृति ने उपनिषद् विचारधारा, गीता, पुराण व सांख्य दर्शन को खूब प्रभावित किया। जितना अहिंसा व करुणा का उपदेश इन ग्रन्थों में मिलता है, सब पर जैनधर्म का प्रभाव है।
वैदिक धर्म अवतारवाद में विश्वास रखता है। जैनधर्म आत्मा से परमात्मा बनने में विश्वास रखता है। जैनधर्म में अवतारवाद के लिए चाहे कोई स्थान न हो, पर धर्म के मामले में एक ठोस मान्यता स्थापित है कि संसार में कभी भी
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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