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गौतम ! परमाणुओं के मिलने-बिखरने के सम्बन्ध में भी अन्यतीर्थिकों की मान्यता ठीक नहीं है। इस विषय में मेरा मत यह है कि दो परमाणु भी एकत्र जुट सकते हैं, क्योंकि दो परमाणुओं में भी उन्हें जोड़ने वाली स्निग्धता विद्यमान होती है। महुए दो परमाणुओं को तोड़ने पर फिर वे एक-एक करके जुदा हो जाते हैं । इसी तरह तीन परमाणु भी आपस में मिल सकते हैं और तोड़ने पर फिर वे एक-एक करके अलग हो जाते हैं।
तीन परमाणु भी आपस में मिल सकते हैं और तोड़ने पर अलग हो जाते हैं। तीन परमाणुओं के स्कन्ध को तोड़कर यदि उसके दो विभाग किए जाएँ तो एक भाग में एक परमाणु रहेगा और एक में दो । इन्हीं तीन परमाणुओं के स्कन्ध को तोड़कर तीन भाग किए जाएँ तो एक-एक परमाणु का एक-एक भाग होगा।
इसी प्रकार चार, पाँच आदि परमाणु एकत्र मिलकर स्कन्ध बनते हैं, परन्तु वे स्कन्ध अशाश्वत होते हैं और नित्य ही उनमें हानि-वृद्धि होती रहती है।
भाषा के विषय में भी अन्यतीर्थिकों के विचार प्रामाणिक नहीं हैं । इस विषय में मेरा सिद्धान्त यह है कि बोली जाने वाली अथवा बोली हुई भाषा 'भाषा' नहीं, पर बोली जाती भाषा ही 'भाषा' है। और वह भाषा 'अभाषक' की नहीं, पर 'भाषक' की होती है।
क्रिया की दुःखरूपता के सम्बन्ध में भी अन्यतीर्थिकों की मान्यता यथार्थ नहीं। पहले या पीछे क्रिया दुःखरूप नहीं होती, किन्तु क्रियाकाल में ही वह दुःखात्मक होती है और वह भी अकरणरूप से नहीं, करणरूप से दुःखात्मक होती है।
गौतम ! जो लोग दुःख को 'अकृत्य' और 'अस्पृश्य' कहते हैं वे भी मिथ्यावादी हैं । दुःख 'कृत्य' और 'स्पृश्य' है, क्योंकि संसारी जीव उसको बनाते, छूते और भोगते हैं, यह कहना चाहिए । ८५
एक समय में दो क्रियाओं के विषय में
गौतम ने कहा-“भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं - एक जीव एक समय में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी इन दो क्रियाओं को करता है । जिस समय में ईर्यापथिकी करता है उसी समय में सांपरायिकी भी करता है और जिस समय में सांपरायिकी करता है उसी समय में वह ईर्यापथिकी भी करता है । अर्थात् ईर्यापथिकी करता हुआ सांपरायिकी और सांपरायिकी करता हुआ ईर्यापथिकी करता है । इस प्रकार अन्यतीर्थिक एक समय में दो क्रियाओं के करने की बात कहते हैं, सो क्या यह कथन ठीक है ?"
महावीर - "नहीं गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन ठीक नहीं है । इस विषय में मेरा मत यह है कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है - ईर्यापथिकी अथवा सांपरायिकी । जिस समय वह ईर्यापथिकी क्रिया करता है, उस समय सांपरायिकी नहीं करता और सांपरायिकी करने के समय ईर्यापथिकी नहीं करता।”८६
निर्ग्रन्थों के देवभव के भोग - सुखों के विषय में
गौतम ने पूछा-‘“भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं-निर्ग्रन्थ कालधर्म प्राप्त होकर देवलोक में देव होता है तब वह अपनी दिव्य आत्मा से वहाँ के अन्य देव-देवियों के साथ अथवा अपनी देवियों के साथ विषय-भोग नहीं करता किन्तु वह अपनी ही आत्मा में से अन्य वैक्रिय रूप बना-बनाकर उनके साथ विषय-सुख भोगता है। क्या भगवन् ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन सत्य है ?"
महावीर - "गौतम ! अन्यतीर्थिक इस विषय में जो कहते हैं वह सत्य नहीं है। सच तो यह है कि निर्ग्रन्थ कालधर्म प्राप्त होने के बाद किसी भी ऐसे देवलोक में देव होता है जो महाऋद्धि और प्रभाव सम्पन्न हो और जहाँ के देवों की आयुष्य-स्थिति बहुत लम्बी हो वहाँ देवरूप से उत्पन्न निर्ग्रन्थ का जीव महातेजस्वी और ऋद्धिमान् देव होता है । वह वहाँ पर दूसरे देवों, उनकी देवियों और अपनी देवियों को अनुकूल करके उनसे विषयवासना पूर्ण करता है और एक
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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