________________
इस वर्ष गुणशील चैत्य में गणधर प्रभास ने एक मास का अनशन करके निर्वाण प्राप्त किया और अनेक अनगार विपुलाचल पर अनशनपूर्वक निर्वाण को प्राप्त हुए । अनेक नयी दीक्षायें भी हुईं।
यह वर्षावास भगवान ने राजगृह में किया ।
अड़तीस वर्ष
इस वर्ष भगवान ने मगधभूमि में ही विहार कर निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचार किया । चातुर्मास निकट आने पर भगवान राजगृह पधारे और गुणशील में समवसरण हुआ ।
अन्यतीर्थिकों की मान्यताओं के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न
(१) क्रियाकाल और निष्ठाकाल के विषय में
गौतम ने पूछा -- “ भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं - चलमान चलित नहीं होता, इसी तरह उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित, हीयमान हीन, छिद्यमान छिन्न भिद्यमान भिन्न दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत और निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं होता ।
(२) परमाणुओं के संयोग-वियोग के सम्बन्ध में
अन्यतीर्थिक कहते हैं. दो परमाणु पुद्गल एकत्र नहीं मिलते, क्योंकि दो परमाणु पुद्गलों में स्निधता नहीं होती । तीन परमाणु एकत्र मिल सकते हैं, क्योंकि तीन परमाणुओं में स्निधता होती है। इन एकत्र मिले हुए तीन परमाणुओं का विश्लेषण करने पर दो अथवा तीन टुकड़े होंगे। दो टुकड़े होने पर डेढ़-डेढ़ परमाणु का एक-एक टुकड़ा होगा और तीन टुकड़े होने पर एक-एक परमाणु का एक - एक टुकड़ा होगा । इसी प्रकार चार तथा पाँच आदि परमाणु-पुद्गल एकत्र मिलते हैं और इस प्रकार मिले हुए परमाणु समुदाय ही दुःख का रूप धारण करते हैं। वह दुःख भी शाश्वत है और उसमें सदा हानि - वृद्धि होती रहती है।
(३) भाषा के भाषात्व के सम्बन्ध में
अन्यतीर्थिक कहते हैं- "बोली जाने वाली अथवा बोली गई भाषा 'भाषा' कहलाती है, पर बोली जाती भाषा 'भाषा' नहीं कहलाती । और भाषा 'भाषक' की नहीं किन्तु 'अभाषक' की कहलाती है।"
(४) क्रिया की दुःखात्मता के विषय में
अन्यतीर्थिक कहते हैं-‘“पहले क्रिया दुःखरूप होती है और पीछे भी वह दुःखरूप होती है, पर क्रिया-काल में क्रिया दुःखात्मक नहीं होती क्योंकि 'करण' से नहीं किन्तु 'अकरण' से ही क्रिया दुःखात्मक होती है, यह कहना चाहिए।" (५) दुःख की अकृत्रिमता के विषय में
अन्यतीर्थिक कहते हैं- “दुःख को कोई बनाता नहीं है और न कोई उसे छूता है । प्राणिमात्र बिना किए ही दुःखों का अनुभव करते हैं, यह कहना चाहिए। भगवन् ! अन्यतीर्थिकों के ये मन्तव्य क्या सत्य हैं ?"
महावीर - - "गौतम ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन कि 'चलमान चलित नहीं होता' ठीक नहीं है। इस विषय में मैं कहता हूँ कि “चलेमाणे चलिए " अर्थात् चलने लगा । वह चला क्योंकि प्रत्येक समय की क्रिया अपने कार्य की उत्पत्ति के साथ समाप्त होती है। इससे सिद्ध हुआ कि क्रियाकाल और निष्ठाकाल एक है, अतः 'चलेमाणे' शब्द से सूचित 'वर्तमान' और 'चलिए' से ध्वनित 'भूत' काल वास्तव में भिन्न नहीं हैं । अतएव 'चलत्' और 'चलित' भी एक ही कार्य के 'साध्यमान' और 'सिद्ध' ऐसे दो भिन्न रूप हैं। यही बात 'उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित, हीयमान हीन, छिद्यमान छिन्न, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत और निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
२३८
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org